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आर्य सुधर्मा से लोकाशाह तक
७७ श्रेष्ठी के पुत्र थे। उनका जन्म ई० पू० ५४३ में माना जाता है। परम्परा की दृष्टि से उनका विवाह १६ वर्ष की अवस्था में हआ था, पर उसके दूसरे दिन ही उन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। यह माना गया है कि जम्बू की दीक्षा भगवान् महावीर स्वामी निर्वाण वर्ष में हुई, अत: आर्य जम्बू की शिक्षा-दीक्षा आर्य सुधर्मा के समीप ही हुई और ३६ वर्ष की अवस्था में वे सुधर्मा के पट्टधर बने तथा ४४ वर्ष तक संघ के प्रधान के रूप में रहे और ८० वर्ष की आयु में निर्वाण को प्राप्त हुये। इस प्रकार आर्य जम्बू वी० नि० सं० ६४ तदनुसार ई० पू० ४६३ में निर्वाण को प्राप्त हुये। आर्य प्रभव स्वामी.
श्वेताम्बर परम्परा में आर्य जम्बू के पश्चात् आर्य प्रभव को तीसरा पट्टधर माना गया है। आर्य प्रभव का जन्म ई० पू० ५५७ में विन्ध्यपर्वत के अंचल में जयपुर नगर में हुआ था। वे कात्यायन गोत्रीय क्षत्रिय राजा विन्ध्य के ज्येष्ठ पुत्र थे। किसी कारणवश उन्हें १६ वर्ष की आयु में राज्य के अधिकार से वंचित कर दिया गया । अपने पैतृक अधिकार से वंचित होने के कारण राजकुमार प्रभव एक साहसी लटेरे के रूप में जंगलों में रहने लगे और वहाँ वे डाकुओं के सरदार बन गये। प्रभव ने ऋषभदत्त श्रेष्ठी के पुत्र जम्बूकुमार के पास निजी विपुल सम्पत्ति की जानकारी मिलने पर उनके घर डाला डाला, किन्तु वहाँ आर्य जम्बू की वैराग्य-वार्ता को सुनकर उन्हें भी वैराग्य उत्पन्न हो गया, फलत: जम्बू के साथ ही वे भी अपने सहयोगियों सहित दीक्षित हो गये। वे ३० वर्ष गृहस्थ जीवन में रहे, ६४ वर्ष सामान्य मुनि पर्याय में रहे और जीवन के अन्तिम ११ वर्ष युगप्रधान आचार्य के रूप में रहे। इस प्रकार उनकी कुल आयु १०५ वर्ष मानी गयी है। यद्यपि विद्वानों को यह आयु मर्यादा थोड़ी अविश्वसनीय लगती है। आर्य प्रभव का स्वर्गवास वी० नि० सं० ७५ में माना गया है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जम्बू के पश्चात् दिगम्बर परम्परा प्रभव के स्थान पर आर्य विष्णु और उनके पश्चात् अपराजित और उनके पट्टधर गोवर्द्धन को मानती है जबकि श्वेताम्बर परम्परा चतुर्थ पट्टधर के रूप में आर्य शय्यंभव को मानती है। आर्यशय्यंभव
आर्य शय्यंभव वत्सगोत्रीय ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुये थे। वे २८ वर्ष की वय में अपनी गर्भवती युवा पत्नी का परित्याग करके दीक्षित हो गये। तत्पश्चात् उन्होंने ८ वर्षीय अपने पत्र मणक को भी दीक्षित किया और उसकी अल्पाय को जानकार उसके लिये 'दशवैकालिकसूत्र' की रचना की। आर्य शय्यंभव २८ वर्ष की आयु में दीक्षित हुये, ११ वर्ष तक सामान्य मुनि जीवन में रहे और २३ वर्ष तक युगप्रधान आचार्य के रूप में जिनशासन की सेवा की। वी० नि० सं० ९८ में ६२ वर्ष की आयु में समाधिपूर्वक स्वर्गगमन किया।
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