SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास हुआ । आपकी माता का नाम भद्दिला था। विद्वानों की दृष्टि में कोल्लाग वैशाली के निकट स्थित कोलुआ नामक ग्राम ही है। आप भी वेद, वेदांग आदि के विशिष्ट विद्वान थे और आपके सानिध्य में भी अनेक छात्र अध्ययन करते थे। आपकी मान्यता यह थी कि जिस योनी का प्राणी है, मृत्यु को प्राप्त कर पुन: उसी योनी में उत्पन्न होता है। महावीर के द्वारा जिज्ञासा का समाधान होने पर आप महावीर के सान्निध्य में अपने शिष्यों सहित दीक्षित हो गये और आपको संघ की धूरी के रूप में गणधर पद प्रदान किया गया। महावीर के निर्वाण के पश्चात् संघ-व्यवस्था आपके हाथ में ही केन्द्रित रही जिसका आपने पूर्ण व्यवस्थित रूप से संचालन किया। यद्यपि स्वयं भगवान् महावीर के काल में और उनके पश्चात् भी संघ में साधु-साध्वियों का विचरण अलग-अलग स्थविरों के नेतृत्व में होता था, फिर भी केन्द्रीय व्यवस्था भगवान् महावीर के जीवित रहते हुये उनके अधीन और उनके पश्चात् आर्य सुधर्मा के ही हाथों में थी। 'आचारांगनियुक्ति' में उल्लेख है कि भगवान् महावीर ने सुधर्मा को गणों की धुरी के रूप में स्थापित किया था। इससे ऐसा लगता है कि महावीर के जीवनकाल से ही आर्य सुधर्मा निर्ग्रन्थ संघ की केन्द्रीय धूरी के रूप में कार्यरत थे। इन्द्रभूति गौतम के जीवन काल तक उनको वरीयता देकर वे संघ का संचालन करते रहे और उनके स्वर्गवास के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्ति के ८ वर्ष पश्चात् तक वे संघ के प्रधान बने रहे। इस प्रकार भगवान् महावीर के निर्वाण के २० वर्ष पश्चात् आर्य सुधर्मा भी राजगृह में ही निर्वाण को प्राप्त हुये। दिगम्बर परम्परा में कषायपाहुड की जयधवला टीका तथा ‘षडखण्डागम' के वेदना खण्ड की धवला टीका में गौतम के पश्चात् लोहार्य के पट्टधर होने का उल्लेख है। इसी आधार पर सुधर्मा का एक अन्य नाम लोहार्य होने की संभावना व्यक्त की गयी है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में कहीं भी इस नाम की पुष्टि नहीं होती है। मात्र 'आवश्यकनियुक्ति' की मलयगिरि की वृत्ति में ऐसा उल्लेख अवश्य मिलता है कि श्रेष्ठ लोगों के समान कान्तिमान वर्ण वाले लोहार्य धन्य हैं जिनके पात्र से स्वयं जिनेन्द्र भगवान् भी अपने पाणिपात्र में भोजन करना चाहते हैं। इस उद्धरण से लोहार्य और महावीर की समकालिकता तो सिद्ध होती है, किन्तु लोहार्य आर्य सुधर्मा ही थे इसकी पुष्टि नहीं होती है, मात्र यह सम्भावना व्यक्त की जा सकती है कि आर्य सुधर्मा के शरीर की कान्ति श्रेष्ठ लोगों के समान रहीं होने के कारण उन्हें लोहार्य कहा जाता रहा हो। उनकी सम्पूर्ण आयुष्य १०० वर्ष की मानी गयी है। इन १०० वर्षों में वे ५० वर्ष गृहस्थावस्था में रहे, ३० वर्ष तक महावीर के सानिध्य में गणधर के रूप में रहे और महावीर के निर्वाण के पश्चात् २० वर्ष तक संघ के संचालक रहे । आर्य जम्बू श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परायें आर्य सुधर्मा के पश्चात् आर्य जम्बू को महावीर का पट्टधर स्वीकार करती है। आर्य जम्बू राजगृह नगर के ऋषभदत्त नामक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy