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________________ तृतीय अध्याय आर्य सुधर्मा से लोकाशाह तक भगवान् महावीर के पश्चात् की पट्ट-परम्परा गौतम और आर्य सुधर्मा से प्रारम्भ होती है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा एवं स्थानकवासी परम्परा भगवान् महावीर के पश्चात् आर्य सुधर्मा को प्रथम पट्टधर मानती है जबकि दिगम्बर परम्परा आर्य इन्द्रभूति गौतम को प्रथम पट्टधर स्वीकार करती है। भगवान् महावीर के जीवनकाल में ही नौ अन्य गणधर स्वर्गवासी हो चुके थे, अत: उनकी शिष्य सम्पदा गौतम और सुधर्मा की ही आज्ञानुवर्ती रहीं। श्वेताम्बर परम्परा आर्य गौतम को प्रथम पट्टधर इसलिए स्वीकार नहीं करती है, क्योंकि महावीर के निर्वाण के पश्चात् वे वीतराग केवली अवस्था को प्राप्त हो चुके थे। सम्भवतः यही कारण रहा होगा कि उन्होंने संघीय व्यवस्था में अपनी सक्रियता और रूचि प्रदर्शित न की हो। फिर भी आर्य सुधर्मा उनकी वरिष्ठता को लक्ष्य में रखकर उनकी आज्ञा में ही संघ संचालन करते रहे। इन्द्रभति गौतम राजगह के निकटवर्ती गोवर्य ग्राम (गोब्बर ग्राम) में ई० पू० ६०७ में गौतम गोत्रीय वसुभूति नामक ब्रह्माण परिवार में उत्पन्न हुये थे। आपकी माता का नाम पृथ्वी था। अग्निभूति और वायुभूति आपके दो सहोदर थे। आपने चारों वेद तथा कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष आदि वेदांगों का अध्ययन किया था। आप अपने युग के एक पारंगत विद्वान थे। आपके सानिध्य में अनेक विद्यार्थी अध्ययन करते थे। अपनी विद्वता और ज्ञान गरिमा के कारण यज्ञादि अनुष्ठानों में हमेशा आपको आचार्य के पद पर अधिष्ठित किया जाता था। फिर भी आप आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में सन्देहशील ही बने हुये थे। भगवान महावीर द्वारा अपनी इस शंका का निरसन होने पर आप अपने शिष्यों सहित महावीर के सान्निध्य में दीक्षित हये सही मायने में इन्द्रभूति गौतम की जिज्ञासा ही विपुल जैन साहित्य की सृष्टि का आधार रही है। महावीर के प्रति आपकी अनन्य आस्था थी यही कारण था कि महावीर के जीवनकाल में आप कैवल्य को प्राप्त नहीं कर सके। महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् ही आपको केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और बारह वर्ष तक वीतराग अवस्था में रहते हुये वी० नि० सं० १२ में मुक्ति को प्राप्त हुये। यद्यपि दिगम्बर परम्परा महावीर के पश्चात् १२ वर्ष तक गौतम को पट्टधर के रूप में स्वीकार करती है, किन्तु संघ के वरिष्ठ सदस्य एवं प्रथम गणधर के पद पर प्रतिष्ठित होने के कारण इन्द्रभूति गौतम चाहे संघ के प्रधान बने रहे हो फिर भी संघ संचालन की प्रक्रिया आर्य सुधर्मा करते रहे । आर्य सुधर्मा आर्य सुधर्मा का जन्म ई०पू० छठी शती में पूर्व विदेह के कोल्लाग नामक ग्राम में उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में अग्नि वैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण आर्य धम्मिल के यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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