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________________ भगवान् ऋषभदेव से महावीर तक महारानी वामादेवी के गर्भ में अवतरित हुआ । गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी ने अनुराधा नक्षत्र में पौष कृष्णा दशमी को तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। गर्भकाल में माता ने अपने पार्श्व में एक सर्प देखा था, इस कारण बालक का नाम पार्श्वनाथ रखा गया । युवावस्था में कुशस्थलपुर नरेश प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती से आपका विवाह हआ । विवाह सम्बन्धी मान्यता श्वेताम्बर परम्परा की है। दिगम्बर परम्परा में पार्श्वनाथ के विवाह का उल्लेख कहीं नहीं मिलता । पार्श्वनाथ के काल में यज्ञ-याज्ञ की प्रधानता थी। चारों ओर कर्मकाण्डों का बोल बाला था। एक दिन राजकुमार पार्श्व ने सुना कि नगर में एक तापस आये हये हैं। जिनके दर्शनार्थ असंख्य श्रद्धालु नर-नारी जा रहे हैं। कौतूहलवश कुमार पार्श्व भी वहाँ गये। वहाँ बड़े-बड़े लक्कड़ों से अग्नि की ज्वाला निकल कर आकाश को छू रही थी। कुमार पार्श्व ने अवधिज्ञान से जलती हुई लकड़ी में नाग-दम्पति को देखा। उनके मन में जीवित नाग के दाह की सम्भावना से अतिशय करुणा का उद्रेक हुआ। उन्होंने तपस्वी से कहातुम जो पंचाग्नि तप कर रहे हो उसमें एक नाग दम्पति जल रहा है। तापस के प्रतिकार करने पर कुमार पार्श्व ने लक्कड़ को चिरवाया। नागदम्पती इसमें से बाहर निकलकर वेदना से छपपटाने लगे, पार्श्व ने उन्हें नमस्कार मंत्र सुनाया। कुछ समयोपरान्त दोनों के प्राणान्त हो गये। मरकर वे दोनों धरणेन्द्र व पद्मावती के रूप में उत्पन्न हुये। उधर तापस मरकर मेधमाली असुरकुमार देव बना। ___संसार की असारता से अवगत होने के पश्चात् ३० वर्ष की अवस्था में आश्रमपद उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे पंचमुष्टि लोचकर आपने दीक्षा ग्रहण की । 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र' के अनुसार दीक्षोपरान्त कोशावन में ध्यान करने के पश्चात् आप एक तापस के आश्रम में पहुँचे। वहाँ ध्यानस्थ हो गये। कमठ तापस के जीव मेधमाली ने अवधिज्ञान से भगवान् पार्श्व को देखा। उन्हें देखते ही पूर्व जन्म का वैर जाग उठा। उसने भगवान् पार्श्व की तपस्या को भंग करने के लिए विभिन्न प्रकार के उपसर्ग उपस्थित किये, किन्तु भगवान् मेरु की भांति अडोल बने रहे। मेधमाली ने सिंह, गज, वृश्चिक, सर्प और भयंकर वेताल का रूप धारण कर भगवान् पार्श्वनाथ को अनेक प्रकार की यातनाएं दी । लेकिन भगवान् पार्श्वनाथ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अपनी विफलता से मेधमाली क्रुद्ध हो उठा। उसने मेध की विकुर्वणा की जिससे चारों ओर बादल छा गये। मूसलाधार पानी पड़ने लगा। पानी बढ़ते-बढ़ते पार्श्व प्रभु की नाक तक पहुँच गया। तभी धरणेन्द्र का आसन कम्पित हुआ। धरणेन्द्र ने आकर भगवान् का वन्दन किया और प्रभु के पैरों के नीचे एक विशाल नालवाला पद्म बनाया तथा स्वयं सात फणों का सर्प बनकर भगवान् पार्श्व के ऊपर छतरी कर दी। तत्पश्चात् कमठ को फटकार लगायी । कमठ भयभीत होकर वापस चला गया। इस प्रकार उपसर्ग शान्त हुआ और धरणेन्द्र भी वापस चला गया।२५ "उत्तरपुराण' में वर्णन आया है कि धरणेन्द्र ने कुमार पार्श्व के शरीर को चारों ओर से घेर कर अपने फणों पर उठा लिया था और पद्मावती ने शीर्ष भाग में वज्रमय छत्र की छाया की थी।२६ Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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