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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास भगवान् अरिष्टनेमि (नेमिनाथ बाइसवें तीर्थंकर)
अरिष्टनेमि का जन्म शौरीपुर में हुआ। शंखराजा का जीव चौथे अनुत्तरअपराजित देवलोक से च्युत होकर कार्तिक कृष्णा द्वादशी को चित्रा नक्षत्र में हरिवंशीय महाराज समुद्रविजय की रानी शिवा के गर्भ में अवतरित हुआ । गर्भकाल पूर्ण होने पर श्रावण शक्ला पंचमी को चित्रा नक्षत्र में रानी शिवा ने तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। ऐसी मान्यता है कि गर्भकाल में माता ने अरिष्टचक्र की नेमि का दर्शन किया था, इसी कारण बालक का नाम अरिष्टनेमि रखा गया । कृष्ण अरिष्टनेमि के चचेरे भाई थे। ऐसी मान्यता है कि आपने यदुवंश के रक्षार्थ जरासंघ से युद्ध किया था और विजयी हुये थे। कृष्ण और रुक्मिणी के आग्रह पर आपने विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दी थी। विवाह के समय भोजनार्थ विभिन्न पकवानों के साथ मांसाहार हेतु सैकड़ों/हजारों पशुओं को भी एकत्रित करके रखा गया था। अरिष्टनेमि की बारात बाड़ें में बँधे पशुओं के समीप से निकली तो उन्होंने सारथि से पूछा कि इन पशुओं को क्यों रोक रखा है? सारथि ने विनम्रता पूर्वक कहा - हे राजकुमार ये सब आपके विवाह के भोज के लिए हैं । विवाह में आपके साथ आये हुये यादव कुमारों को इनका मांस परोसा जायेगा। यह सुनते ही अरिष्टनेमि का हृदय करूणा से भर गया। वे सोचने लगे मेरा विवाह होगा और हजारों अबोध पशुओं की बलि जढ़ायी जायेगी । तत्क्षण उन्होंने सारथि से कहा रथ वापस द्वारका की ओर मोड़ लो। पशुओं को बाड़े से मुक्तकर प्रसन्नमना शरीर पर से आभूषण उतार कर सारथी को दे दिये और द्वारका पहँचकर दीक्षा लेने की घोषणा कर दी। अचानक अरिष्टनेमि की विरक्ति भावना को देखकर जनमानस विस्मित था। अभिनिष्क्रमण यात्रा प्रारम्भ हुई जिसमें देवेन्द्र, मानवेन्द्र कृष्ण एवं बलराम ने भाग लिया। उत्तरकुरु नामक शिविका में बैठकर अरिष्टनेमि उज्जयंतगिरि (रेवतगिरि) पर्वत पर पहुँचे। वहीं सहस्राम्रवन में श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन अशोक वृक्ष के नीचे अपने आभरणों एवं राजसी वस्त्रों का त्याग किया और पंचमुष्टि लोंच कर दीक्षा ग्रहण का। ५४ दिनों की कठोर तपस्या के पश्चात् उज्जयंत गिरि (रेवतगिरि) पर बेतस वृक्ष के नीचे आश्विन अमावस्या के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ति हुई। आषाढ़ शुक्ला अष्टमी को उज्ज्यंत गिरि (रेवतगिरि) पर ही आप निर्वाण को प्राप्त हुये । अरिष्टनेमि से विवाह न होने पर राजीमती ने भी संयमी जीवन धारण कर लिया था।
आपके धर्म परिवार में ११ गणधर, १५०० केवलज्ञानी, १००० मन:पर्यवज्ञानी, १५०० अवधिज्ञानी, १५०० वैक्रियलब्धिधारी, ४०० चतुर्दशपूर्वी, ८०० वादी, १८००० साधु, ४०००० साध्वी, १६९००० श्रावक एवं ३३६००० श्राविकायें थीं। भगवान् पार्श्वनाथ
पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ। स्वर्णबाहु का जीव महाप्रभ विमान से च्यवित होकर चैत्र कृष्णा चतुर्थी को विशाखा नक्षत्र में वाराणसी के राजा अश्वसेन की
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