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________________ ५१० स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास सामाचारी नां फल, फ्रासुक आहार दीधानां फल, श्री भगवती मध्ये बारे भेदे तप कीधा ना फल त्रीसमइ अध्ययनइ, दशविध वेआवच्च नां फल बोल्या श्री ठाणांग मध्ये, तथा विनय कीधां नां फल, अध्ययन पहिलइ तथा अध्ययन ३१ मइ चारित्र पाल्या नां फल, तथा ओगणत्रीसमइ अध्ययनइ बोल घणां ना फल बोल्यां, तथा श्रावकनई बार व्रत पाल्या नां फल श्री उववाइ उपांग तथा सामाइय चउवीसत्थओ इत्यादि आवश्यकनां फल अनुयोगद्धार मध्ये तथा श्रावकनई जु साधु चारित्रीआ वंदनीक छई तु साधुनइ वांद्या नां फल तथा साधु नी पर्युपास्ति कीधानां फल तथा अन्न पाणी दीधांनां फल तथा उपाश्रय दीधानां फल तथा वस्त्र पात्र दीधानां फल इत्यादि। जउ तीर्थंकरदेव गणधर आचार्य उपाध्याय साधु जउ आराध्य छइ त तेहना घणी-घणी परि नां फल श्री सिद्धान्त माहिं कह्यां छइं अनइ जउ प्रतिमा मोक्षमार्ग मांहिं आराध्य नथी तु किहां सिद्धान्त मांहिं प्रासाद कराव्याना, प्रतिमा घडाव्यानां, प्रतिमा भराव्याना तथा प्रतिमा पूज्यांना तथा प्रतिमा प्रतिष्ठयाना तथा प्रतिमा वांद्या नां तथा प्रतिमा आगलि ढोयानां फल तथा प्रतिमा आगलि भावना भाव्याना फल इत्यादि-घणां वानां लोक प्रतिमा आगलि, करइ छइ पणि ते एकइ बलिना फल सूत्रइ श्री वीतराग देवे नथी कह्या। तउ जोउनइ मोक्ष नां फल पाषई जिकां वन्दना पूजना करइ छइ, तेहनइ मोक्ष नुं लाभ किम हुसि? डाहु हुई ते विचारी जोज्यो । एह आठमु बोल । ९. नवमु बोल हवइ नवमु बोल लिखीइ छइ। तथा जीवाभिगम उपांगमध्ये लवण समुद्र ना अधिकार कह्यां छई । तिहां श्री गौतमस्वामिई पूछया छइ जु “पाणी एवड़उ उच्छलइ तु जंबूद्वीप नई एकोदक सिंइं नथी करतु ? तिहां वलतुं श्री वीतरागे इम कडं कई" जति णं भंते लवण समुद्दे दो जोअणसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं, पण्णरस जोअणसहस्साई सत्तचउआलं किंचि- पिसेसुणे परिक्खेपेणं, एगं जोअणसहस्सं उव्वेहेगं, सोलस जोयणसहस्साई उस्सेहेणं, सत्तरस जोअणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते, कम्हा णं भंते लवणसमुद्दे जंबूदीवं दीवं नो उवीलेति, नो उप्पीलेति, णो चेव णं एक्कोदगं करेति?" गोअमा! जंबूदीवे णं दीवे भरहेरवतेसु वासेसु अरहंत चक्कवहि बलदेव वासुदेवा चारण विज्जाहरा, समण समणी, सावयसावियाओ, मणुआ पगतिभद्दया पगतिविणीया पगति उवसंता पगतिपयणुकोहकोहमाणमायालोभा मिउमद्दवसंपण्णा अल्लीणा भद्दगा विणीया तेसिं णं पणिहाय लवणसमुद्दे जंबूदीवं दीवं नो उवीलेति, नो उप्पीलेति, णो चेव णं एक्कोदगं करेति। गंगासिन्धुरत्तारत्तवईसु सलिलासु देवयाओ, महिड्डियाओ, जाव पलिओवमठितीयाओ परिवसंति, तासिंणं पणिहाय लवणसमुद्दे जाव णो चेव णं एक्कोदगं करिति। चुल्लहिमवंतसिहरिसु वासधरपव्वतेसु देवा महिड्डिया, तेसिं णं पणिहाय हेमवयरण्णवएसु वासेसु मणुआ पगतिभद्दया, रोहितारोहितंसासुवण्णकुलारुप्पकुलासु सलिलासु देवयाओ महिड्डियाओ, तासिं पणि सद्दावति विअडावति वट्टवेअड्डपव्वएसु देवा महिड्डिआ जाव पलिओवमठितिआ पण्णत्ता। महाहिमवंतरूप्पासु वासहरपव्वएसु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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