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________________ परिशिष्ट ५०९ वरदामे पभासे' तो जोउ तइ जिम गणधरे तीर्थ कह्यां, तिम इ म न कहिउं जे “तओ कुतित्था पण्णत्ता' जु गणधरे ते तीर्थ कह्यां तु कांई आपणपे तीर्थ करी आराध्या नहीं। एतलइ गणधर जेहनुं जेहq नाम हुइ तेहनइं तेहवु नाम कहइ। ते ते नाम कह्या माटि इ कांइ आराध्य न थाइ । श्री वीतरागइ तु ज्ञान दर्शन चारित्र आराध्या त्रीजइ ठाणइ बोल्या "तिविहा आसाहणा पण्णत्ता तं जहा नाणाराहणा दंसणाराहणा चारिताराहणा" तथा गणधरे आपणे मुखइं इम कर्दा- पूर्णभद्र यक्षनइं-"जे दिव्वे सच्चे" ए यक्ष साचउ, जु गणधरे इम कह्यु - जे ए यक्ष साचउं तु कांई आपणइं आराधवउ नहीं । तथा गणधरे इम कर्दा जे गोशाला ना श्रावक एहवा छई, जे 'अरिहंतदेवतागा अम्मापिउ सस्सुसगा।' गणधर इम कडं जे गोशालाना श्रावकनई गोशालो अरिहंत देव छइं पणि गणधरे इम सिंइं न कह्यु - 'जे गोशालाना श्रावकनइं गोशालो कुदेव छइ।' एतलइ इम जाणज्यो, जे लोक मांहि जे पदार्थ जेहवां प्रवर्तइ छइ, ते गणधरपणि तिम ज कहई । तथा द्रपदी ना आलावा नी वृत्ति मांहिं इम कहिउं छइ-जे "एक वाचनाइ एहवं छड्, जे “जिणपडिमाणं, अच्चणं करेति।" एतावदेवं दृश्यते- “जिन प्रतिमा नी अर्चा कीधी' एतलु ज दीसइ छइ, पणि 'जिणघरे' इत्यादिक बोल कह्या नथी । हवड़ा जे प्रति प्रवर्त्तइ छइ, अनइ ते प्रतिविचालइ आंतरां घाढ़ा घणां दीसइ छइं डाहु हुइ ते विचारी जोज्यो। तथा केतलाएक इम कहई छइं-जे द्रुपदी इं नारदनई इम कहिउं जे "असंजयअविरए'' इत्यादि। ओ बोल सम्यग्दृष्टी विवेक कुण जाणइ। ते बोल मिथ्यात्वीइ, गौतमस्वामीनइं पणि इम कहिआ छ।। ते लिखीइ छइ-"तएणं ते अन्नउत्थिआ जेणेव भगवं गौअमे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भगवं गोअमं एवं वयासी-“तुम्भे णं अज्जो तिविहं तिविहेणं असंजय अविरय-पडिहय पच्चखायपावकम्मे सकिरिए, असुंवुड़े एगंतदंडे एगंतबाले आवि भवह।" एहवा बोल कह्या छई। श्री भगवतीसूत्रनइ अढारमा शतकनइ आठमई उद्देसई छइ। तथा स्थविरनइ पणि मिथ्यात्वीइं एहवा बोल कह्या छइं। "तए णं ते अनऊत्थिआ जेणेव थेरा भगवंता, तेणेव उवागच्छंति । ते थेरे भगवंते एवं वदासि-तुम्भे णं अज्जो तिविहं तिविहेणं असंजय अविरय पड़हय इत्यादि जहा सतमसए जाव एगंतबाले आवि भवह ।" श्री भगवती सूत्रनइ आठमा शतकनइ सातमइ उद्देसइ छइ। तु जोउनइ मिथ्यात्वी “असंजए अविरए" इत्यादि बोल जाणइ छड्। एह सातमु बोल । ८. आठमु बोल. हवइ आठमु बोल लिखीइ छइ। तथा श्री वीतरागदेवई सिद्धान्त मांहि साधु चारित्रियानइ श्री ठाणांग मध्ये पंच महाव्रतनां पाल्या ना फल तथा श्री उत्तराध्ययन चउवीसमा मध्ये पांच समिति त्रिणि गुप्तिनां फल, तथा अध्ययन २६ मइ दश विध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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