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________________ आचार्य मनोहरदासजी और उनकी परम्परा ४३७ आपके जीवन से अनेक अलौकिक घटनायें जुड़ी है जिन्हें विस्तारभय से यहाँ प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है। ऐसा माना जाता है कि आपका शिष्य परिवार बहत विशाल था। मुनि श्री भागचन्द्रजी, श्री जादूरायजा, श्री नानकचन्दजी आदि आपके प्रमुख शिष्यों में थे। मुनि श्री नानकचन्दजी की दीक्षा वि०सं० १७५१ मार्गशीर्ष कृष्णा षष्ठी को नारनौल में हुई थी। आचार्य श्री मनोहरदासजी एक कुशल एवं सिद्धहस्त लेखक थे। आपकी विभिन्न रचनायें उपलब्ध होती हैं। आपकी उपलब्ध रचनायें निम्नलिखित हैं- चेतन चरित्र (वि०सं० १७२१), सम्यक्त्वरास (वि०सं० १७२१, माघ शुक्ला द्वादशी), ज्ञान चिन्तामणि (वि०सं० १७२८, माघ शुक्ला द्वादशी) नवतत्त्व (वि०सं० १७६०)। आयु अधिक हो जाने पर आपने अपना विहार क्षेत्र सीमित कर लिया। सिंघाणाखेतड़ी, नारनौल, महेन्द्रगढ़, चरखीदादरी, खण्डेला, हरसोरा और बहरोड़ आदि आपका विहार क्षेत्र रहा । अन्त में आप सिंधाणा में ही स्थिरवास करने लगे चौरानवें वर्ष की लम्बी आयु पूर्ण कर १७७४ के लगभग आपका स्वर्गवास हुआ। ऐसा माना जाता है कि मुनि श्री मनोहरदासजी से ही स्थानकवासी परम्परा में मनोहर सम्प्रदाय का प्रारम्भ हुआ है। कुछ विद्वानों की यह भी मान्यता है कि पूज्य धर्मदास जी से सम्बन्धित बाईस सम्प्रदाय के प्रवर्तकों में मुनि श्री मनोहरजी के नाम से आपका ही उल्लेख है। आप युग प्रभावक आचार्य श्री सदारंगजी स्वामी के परमप्रिय शिष्य अथवा सदारंगजी स्वामी के गुरुभ्राता आचार्य श्री वर्द्धमानजी स्वामी के शिष्य अथवा श्री आसकरणजी स्वामी के शिष्य और वर्द्धमानजी स्वामी के लधुभ्राता थे। ऐसा भी संभव है कि दोनों मनोहरदासजी एक ही हों और नागौरी लोकागच्छ से निकलकर धर्मदासजी से मिल गये हों क्योंकि आगे की पट्ट परम्परा दोनों की समान है। यद्यपि आयु और दीक्षापर्याय में आप श्री धर्मदासजी से बड़े थे। फिर भी श्री धर्मदासजी के संघ में मिलने की सम्भावना अधिक जान पड़ती है, क्योंकि आपने वि०सं० १७१२ में नागौरी लोकागच्छ का परित्याग कर क्रियोद्धार किया था और श्री धर्मदासजी ने वि०सं० १७२१ के आस-पास क्रियोद्धार किया था। आचार्य श्री भागचन्द्रजी आप आचार्य श्री मनोहरदासजी के प्रमुख शिष्य एवं मनोहर सम्प्रदाय के द्वितीय आचार्य थे । आपका जन्म बीकानेर में हुआ था। आचार्य श्री मनोहरदासजी के सान्निध्य में नारनौल में आपने आहती दीक्षा प्राप्त की थी। दीक्षोपरान्त आपने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। जप-तप-साधना आदि में आपकी विशेष रुचि थी। सिंधाणा १. पण्डितरत्न श्री प्रेममुनि स्मृति, ग्रन्थ, पृ० - २२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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