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________________ द्वादश अध्याय आचार्य मनोहरदासजी और उनकी परम्परा श्री लवजीऋषिजी, श्री धर्मसिंहजी और श्री धर्मदासजी के समकालीन एक क्रियोद्धारक श्री मनोहरदासजी भी हुये। आपका जन्म वि०सं० १६८० के आस-पास राजस्थान के नागौर में हुआ। आपके माता-पिता का नाम उपलब्ध नहीं होता, अत: आपकी जाति और गोत्र पर स्पष्ट प्रकाश नहीं डाला जा सकता । वि०सं० १६९९ के लगभग उन्नीस वर्ष की आयु में नागौर में ही आचार्य श्री आसकरणजी स्वामी, आचार्य श्री वर्द्धमानजी स्वामी और श्री सदारंगजी स्वामी की निश्रा में आपने आर्हती दीक्षा ली। मुनि श्री रत्नचन्द्रजी ने अपने स्थानांगसूत्र की प्रशस्ति में आपको श्री वर्धमानजी स्वामी का शिष्य माना है। दीक्षोपरान्त आपने गुरुचरणों में रहकर आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। अप्रतिम प्रतिभा के धनी आपश्री तीन वर्ष के अत्यल्प काल में ही सिद्धान्त शास्त्रों के पारगामी व धुरन्धर विद्वान् बन गये। आप एक उग्र तपस्वी के रूप में जाने जाते थे। आप वर्षों तक निरन्तर छ?-छट्ठ (बेले-बेले) तप करते रहे। पारणे के दिन भी एक समय विगय रहित आहार लेते थे। लम्बे-लम्बे मासखमण जैसे तप करते थे। भयंकर आतापना लेना आपका नित्य का नियम था। खड़े-खड़े ध्यान और कायोत्सर्ग करना आपको अच्छा लगता था। छह-छह महीने तक नहीं लेटना, क्षुधा सहना, तृषा सहना आपके साधु जीवन की विशेषतायें हैं। किन्तु गच्छ में व्याप्त साध्वाचार में शिथिलता ने आपके मन को उद्वेलित कर दिया। आपके मन में अनेक प्रश्न उठने लगे। कहाँ आगम वर्णित विशुद्ध साध्वाचार और कहाँ आज घोर शिथिलाचार से भरा यति वर्ग का घृणित जीवन। कहाँ धर्मप्राण लोकाशाह और आचार्य श्री हीरागरजी स्वामी जैसे महापुरुषों द्वारा किया गया क्रियोद्धार और कहाँ आज का धूमिल चारित्रवाला आचारहीन यतिवर्ग आदि विभिन्न प्रश्न आपके मन को विचलित करने लगे। अत: वि०सं० १७१२ के लगभग ३१ वर्ष की आयु में आपने गुरु की आज्ञा से नागौरी लोकागच्छ का परित्याग कर दिया। क्रियोद्धार कर वि०सं० १७१६ के लगभग ३५ वर्ष की आय में मनोहरगच्छ के संस्थापक आचार्य बने। क्रियोद्धार करने वाले मुनियों में गुरुभ्राता श्री खेतसीजी एवं प्रमुख शिष्य श्री भागचन्द्रजी आपके साथ थे। गच्छ परित्याग करने के उपरान्त आप तीनों मुनिगण नागौर से अजमेर, कुचामन, जोवनेर, जयपुर, खण्डेला, हरसोरा, बहरोड़, खेतड़ी-सिंधाणा, नारनौल, महेन्द्रगढ़, चीदादरी, भिवानी, तोसाम, हाँसी, हिसार, बाँगर, खादर, यमुनापार, दिल्ली, आगरा आदि क्षेत्रों में विहार करते हुए चारों तरफ भगवान् महावीर के विशुद्ध विचारों को फैलाया । विहार में नाना प्रकार की बाधायें आयीं लेकिन निर्विकार भाव से उन बाधाओं को सहते हुए आगे बढ़ते गये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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