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________________ आचार्य धर्मदासजी की मालव परम्परा ४२३ इनके अतिरिक्त भी आपने तपश्चर्यायें की थीं, किन्तु विवरण उपलब्ध नहीं होता है। वि० सं० १९९९ में आपने प्रवर्तक ताराचन्दजी के साथ चातुर्मास किया और उसी वर्ष आपका स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री केशरीमलजी ___ आप पूज्य श्री सौभाग्यमलजी के शिष्य थे। वि०सं० १९८४ में मुम्बई में आपने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने के पश्चात् आपने कई वर्षों तक बेले-बेले तप किया । पूज्य प्रवर्तक श्री ताराचन्दजी के साथ आपने दक्षिण का विचरण किया था, ऐसा उल्लेख मिलता है। आपने थोकड़ों के माध्यम से अध्ययन किया था। आपकी संसारपक्षीय बहन केसरबाई और मानजी गुलाबबाई भी दीक्षित हुईं थीं। महासती गुलाबकुंवरजी प्रवर्तिनी पद पर रहीं। वि०सं० २०१० में रतलाम में आपका स्वर्गवास हो गया। आपकी (श्री केशरीमलजी) जन्म-तिथि, माता-पिता आदि के नाम उपलब्ध नहीं होते हैं। शतावधानी मुनि श्री केवलमुनिजी आप जमनापार के गाँव कुराना के निवासी थे। बाल्यकाल में ही आपके मातापिता का देहान्त हो गया था। आपकी जन्म-तिथि उपलब्ध नहीं होती है और न मातापिता के नाम ही उपलब्ध होते हैं। आपका बाल्यकाल आपने काका श्री नन्दूजी के यहाँ बीता। किन्तु आप अपने काका के गुस्सैल स्वभाव से परेशान थे। छोटी-सी गलती पर भी पिटाई लगती थी। अन्तत: आप घर छोड़कर ट्रेन द्वारा दिल्ली पहुँच गये। वहाँ आपकी मुलाकात श्री कबूलमलजी से हुई । वे आपको दिल्ली में विराजित प्रवर्तक श्री ताराचन्दजी के पास ले गये और आप वहीं मुनि श्री के पास रहने लगे। यह घटना वि०सं० १९८० की है। वहाँ से आप मुम्बई आये और वि० सं० १९८५ में वहीं आपकी दीक्षा हुई। इस प्रकार आप केवलचन्द से श्री केवलमुनि हो गये। मुनि श्री सौभाग्यमलजी के शिष्यत्व में आपने संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। आप अवधान के अच्छे ज्ञाता थे। आपके विषय मैं ऐसा कहा जाता है कि आप शिष्य नहीं बनाते थे। मुनि श्री लालचन्दजी अपने दो पुत्रों श्री मानमुनिजी और श्री कानमुनिजी तथा दो पुत्रियों के साथ दीक्षित होने के लिए आये थे, किन्तु आपने शिष्य बनाने से इंकार कर दिया था। बाद में श्री पारसमुनिजी (लालचन्दजी के लधु-पुत्र) को आपका शिष्य घोषित कर दिया गया। आपने सूर्यकिरण चिकित्सा का भी अध्ययन किया था। आप अपने जीवन के अन्तिम काल में उज्जैन के नयापुरा में विराजित थे। आपकी सेवा में एकमात्र श्री जीवनमुनिजी थे। एक दिन आप टहलने के विचार से रेलवे लाईन की ओर चले गये और ट्रेन दुर्घटना में आपका स्वर्गवास हो गया। यह घटना वि०सं० २०११ की है। मुनि श्री रूपचन्दजी आप बदनावर के समीपस्थ ग्राम मुलथान के निवासी थे। आप जाति से वोरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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