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________________ ४२४ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास गोत्रीय ओसवाल थे। आपकी जन्म-तिथि,माता-पिता के नाम आदि उपलब्ध नहीं होते हैं। इतना उपलब्ध होता है कि आपने वृद्धावस्था में वि० सं० १९८७ में पूज्य श्री ताराचन्दजी के थान्दला वर्षावास में मुनि श्री भगवानदासजी की तपश्चर्या पूर्ण होने के दिन दीक्षा ली थी। दीक्षित होने पर आपने यह नियम लिया कि सुख-समाधि रहते हुए मैं जीवन भर बेलेबेले की तपस्या करूँगा। १२ वर्ष से कुछ अधिक तक का संयमपर्याय जीवन व्यतीत करने के पश्चात् वि०सं० १९९९ में बदनावर में वर्षावास पूर्ण होने पर आपका स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री मोहनमुनिजी आप जामनगर के निवासी थे । आप बहुत दिनों तक अफ्रीका में सेवारत थे। तदुपरान्त आप पुन: जामनगर आ गये और जिला विद्यालय में चार वर्ष तक अंग्रेजी के अध्यापक रहे। वहाँ से आप मुम्बई पधारे । वि०सं० १९८५ में मुम्बई में आप श्री सूर्य मुनिजी के सम्पर्क में आये। उनके प्रवचनों से आप में वैराग्य उत्पन हुआ। चूंकि पारिवारिक उत्तरदायित्व से आप मुक्त हो चुके थे। आपकी एक पुत्री थी जिसका पाणिग्रहण संस्कार हो चुका था और आपकी पत्नी पंचतत्त्वों में विलीन हो चुकी थी, अत: दीक्षा-मार्ग में कोई अड़चन नहीं था। वि०सं० १९८६ ज्येष्ठ वदि अष्टमी को नीसलपुर में आपकी दीक्षा हुई। यद्यपि आप अपने विषय के विद्धान् थे किन्तु आत्म प्रदर्शन में आपका विश्वास नहीं था। वि० सं० २०१८ में रतलाम में आपका स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री नगीनचन्दजी आप उज्जैन निवासी श्री झुमरलालजी के बड़े पुत्र थे। जब आपकी माताजी का देहान्त हो गया तब आपकी बड़ी बहन सुन्दरबाई ने आप दोनों भाईयों का लालन-पालन किया। कुछ वर्षोपरान्त आपके पिता श्री झुमरलालजी का भी देहावसान हो गया। जब आपकी बड़ी बहन सुन्दरबाई ने महासती श्री गुलाबकुँवरजी के पास दीक्षा ले ली तब आप अपने काका के पास रहने लगे। अपनी बड़ी बहन के पद् चिह्नों पर चलते हुए वि०सं० १९८८ वैशाख कृष्णा प्रतिपदा, दिन सोमवार को नीमाड़ के कड़ी कस्बा में आपने मुनि श्री सौभाग्यमलजी के शिष्यत्व में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षोपरान्त आपने प्राकृत भाषा का गहन अध्ययन किया। प्राकृत पठन-पाठन का कार्य आप बड़े लगन से करते थे। ऐसी जनश्रुति है कि आपके अक्षर बड़े सुन्दर थे और शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ करने में आपकी विशेष रुचि थी। आप स्वभाव से मृदभाषी तथा शान्तिप्रिय थे। आपका मानना था कि व्यक्ति कैसा भी क्यों न हो, उसमें कोई न कोई गुण अवश्य होता है। कोई खोजने वाला चाहिए। ३०वर्ष तक संयमपर्याय का पालन करने के पश्चात् वि०सं० २०१७ में आपका स्वर्गवास हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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