SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७९ धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं . ३७९ (५) अन्यः 'कुलक संग्रह' (धार्मिक कहानियाँ), 'आदर्श विभूतियाँ', 'अमरता का पुजारी, 'सैद्धान्तिक प्रश्नोत्तरी', 'जैन स्वाध्याय सुभाषितमाला' भाग १ व २, ‘षडद्रव्य विचार पंचाशिका' 'नवपद आराधना' आदि। आचार्य श्री हीराचंदजी (वर्तमान) रत्नवंश परम्परा के नवें आचार्य श्री हीराचन्दजी वर्तमान में विराजित हैं। आपका जन्म वि० सं० १९९५ चैत्र कृष्णा अष्टमी तदनुसार १३ मार्च १९३८ को पीपाड़ में श्री मोतीलालजी गाँधी के यहाँ हुआ । आपकी माता का नाम श्रीमती मोहिनीबाई था। आपके पिता पीपाड़ नगर के एक प्रतिष्ठित, धर्मप्रेमी तथा कर्तव्यनिष्ठ श्रावक थे तो आपकी माता ममता एवं सहजता की प्रतिमूर्ति थीं। अत: आपमें धार्मिक संस्कार होने स्वाभाविक हैं। आपका बचपन नागौर में बीता। सौभाग्यवश आपको आचार्य श्री हस्तीमलजी का सानिध्य प्राप्त हुआ। उनके प्रवचन सुनने से आपके मन में वैराग्य के बीज वपित होने लगे। वैराग्य का बीज जब विशालकाय वृक्ष का रूप ले लिया तब आचार्य श्री हस्तीमलजी ने वि०सं० २०२० की कार्तिक शुक्ला षष्ठी को पीपाड़ में आपको दीक्षा प्रदान की। यद्यपि आपने वि०सं० २०१३ से ही बीकानेर चातुर्मास में आचार्यश्री की सेवा में प्रस्तुत होकर तप-साधना जारी कर दी थी। आचार्य प्रवर की देखरेख में उनके गुरु पं० दुःखमोहन झा से आपने आगम, न्याय, दर्शन, काव्य एवं व्याकरण आदि का गहन अध्ययन किया । श्री संघ के प्रति आपके समर्पण एवं सच्ची लगन को देखकर आचार्य प्रवर ने एक पत्र लिखकर आपको आगमी आचार्य पद के लिए मनोनित किया। परिणामस्वरूप जोधपुर में वि०सं० २०४८ ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी, तदनुसार २ जून १९९१ दिन रविवार को चादर समारोह कार्यक्रम में आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। आचार्य पद पर आसीन होने के पश्चात् आचार्य श्री हीराचंदजी ने जो उदगार व्यक्त किये वो एकता और अखण्डता के सूचक हैं। उन्होंने कहा- 'अभी जो चादर मुझे ओढ़ाई गयी है, वह प्रेम, श्रद्धा स्नेह एवं निष्ठा की प्रतीक है। जैसे चादर का एक-एक तार एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है, ऐसे ही संघ का हर एक सदस्य संघ-व्यवस्था और अनुशासन से जुड़ा है, किसी का भी किसी से अलगाव नहीं है। किसी को भी कोई हल्का या छोटा नहीं समझे। सब एकदूसरे के सतत् सहयोग से शासन सेवा में संलग्न रहें, यही चादर का मल संदेश है।' उन्होंने कहा हम एक-दूसरे के पूरक हैं। संघ में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की जो निधि पूर्वाचार्यों ने दी है, उसका रक्षण एवं अभिवर्द्धन हो, स्वाध्याय की ज्योति निरन्तर घर में जगे। इसमें हमारा-आपका सभी का सम्मिलित प्रयास रहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy