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________________ ३७२ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास है- दिल्ली-१, लश्कर-१, किशनगढ़-१, विराटियाँ-१, बीकानेर-२, जयपुर-२, रीयां -३, बड़लू-३, अजमेर-६, अहिपुर (नागौर) -७, जोधपुर-२, रीयां-३ और पाली-११। ___ मुनि श्री कनीराम के शिष्यों में मुनि श्री मेघराजजी और मुनि श्री बुधमलजी प्रमुख थे। मुनि श्री मेघराजजी का जन्म वि०सं० १८५९ में जोधपुर निवासी ओसवंशीय श्री मोतीरामजी के यहाँ हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती मीरादेवी था। चौदह वर्ष की अवस्था में वि०सं० १८७३ को आपने श्री कनीरामजी के पास शुभ मुहूर्त में दीक्षा धारण की। ३६ वर्ष संयमपर्याय की आराधना कर वि० सं० १९०९ में आप स्वर्गस्थ हुये। मुनि श्री बुधमलजी मुनि श्री कनीरामजी के द्वितीय प्रमुख शिष्य के रूप में आपको जाना जाता है। आपका जन्म मारवाड़ के बाबरा नामक ग्राम में हुआ था। आपके पिताजी का नाम श्री कनीराम लोढ़ा तथा माता का नाम श्रीमती लछमाबाई था । वि०सं० १८९५ में मुनि श्री कनीरामजी के पास आपने भागवती दीक्षा ग्रहण की। अपने, संयमपर्याय में आपने अनेक भव्य जीवों को सद्मार्ग अंगीकार कराया। वि०सं० १९२१ में आपका समाधिमरण हुआ। आचार्य श्री विनयचन्दजी रत्नवंश परम्परा के छठे पाट पर मुनि श्री विनयचन्दजी विराजित हुए। श्री विनयचन्दजी का जन्म ओसवंशीय श्री प्रतापमलजी पुगलियां के यहाँ वि०सं० १८९७ आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती रम्भाकुंवर था। आप चार भाई और एक बहन थे । अचानक आपके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया और परिवार की पूरी जिम्मेदारी आप पर आ गयी । कम उम्र में इतनी बड़ी जिम्मेदारी आ जाना मानों अपने ऊपर पहाड़ गिरने के समान है, किन्तु आपने बड़े धैर्य से काम लिया। आप अपनी बहन-बहनोई के पास पाली चले गये और व्यापार आरम्भ किया। पारिवारिक स्थिति ठीक हो गयी। एक दिन पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी के शुभ दर्शन का लाभ मिला। उनका प्रवचन सुनकर आपके मन में वैराग्य भाव जाग्रत हुआ। अपनी इस भावना को आपने अपने छोटे भाई श्री कस्तूरचन्दजी के सामने प्रकट किया। छोटा भाई भी उनका साथ देते हुए संयममार्ग पर चलने के लिए तैयार हो गया। उधर पूज्य आचार्य श्री का विहार हो गया। इधर दोनों भाईयों ने अपने परिवार के लोगों को समझा-बुझाकर दीक्षा की आज्ञा ले ली। दोनों भाई हर्षित भाव के साथ अजमेर पहँचे और पूज्य आचार्य श्री के सानिध्य में वि० सं० १९९२ मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया को शुभ मुहूर्त में आप दोनों दीक्षित हुए। किन्तु कुछ वर्षों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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