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________________ धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं ३७३ पश्चात् ही छोटे भाई मुनि श्री कस्तूरचन्दजी का अचानक स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री विनयचन्द्रजी अपना ज्यादा समय अध्ययन, तप-साधना तथा पूज्य गुरुदेव की सेवा में ही व्यतीत करते थे। पूज्य श्री की सेवा में रहकर आपने आगम साहित्य के मर्म को जाना। आप जातिवाद, सम्प्रदायवाद से कोसों दूर थे। आपकी विनयशीलता, आगमज्ञता और व्यवहार कुशलता को देखते हुए पूज्य श्री कजोड़ीमलजी ने आपको अपना उसराधिकारी बनाया। वि० सं० १९३६ में पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी के स्वर्गस्थ हो जाने पर वि०सं० १९३७ ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी को चतुर्विध श्री संघ के बीच बड़े समारोह के साथ आपको आचार्य पद प्रदान किया गया। आपके आचार्यत्व में संघ का पूर्ण विकास हुआ तथा अन्य सम्प्रदायों के साथ प्रेमपूर्ण समागम हुआ। वि०सं० १९५४ में पूज्य आचार्य श्री अमरसिहंजी सम्प्रदाय के मुनि श्री मायारामजी (पंजाब सम्प्रदाय) अपनी शिष्य मंडली के साथ मारवाड़ पधारे। उस समय प्रेम और सम्मान के साथ दोनों सन्तों ने एक-दूसरे की भावना को जाना-समझा और दोनों एकदूसरे से प्रभावित हुए। जोधपुर निवासी श्री कीर्तिमलजी कोचर की विनती पर दोनों सम्प्रदाय के संतों का चातुर्मास जोधपुर में हुआ। दोनों सम्प्रदायों के संतों के इस समागम से वहाँ के श्रावक मंत्रमुग्ध हो गये थे। हो भी क्यों नहीं, दो सम्प्रदायों का एक साथ चातुर्मास एक अनूठा आदर्श जो प्रस्तुत कर रहा था। चातुर्मास के पश्चात् मनि श्री मायारामजी ने पंजाब की ओर विहार किया । इसी प्रकार आचार्य श्री विनयचन्द्रजी पीपाड़, किशनगढ़, अजमेर होते हुए जयपुर पधारे। नेत्र-ज्योति कम हो जाने के कारण वि०सं० १९५६,५७,५८ में जयपुर में आपने स्थिरवास किया। कुछ समय पश्चात् हुक्मीचन्दजी सम्प्रदाय के आचार्य श्री लालजी जयपुर पधारे। स्थण्डिल भूमि से वापस लौटते समय आचार्य श्री विनयचन्दजी अपने सन्तों के साथ आचार्य श्री श्रीलालजी के दर्शनार्थ गये। उसी दिन दोपहर के पश्चात् पूज्य श्री लालजी श्री विनयचन्द्रजी के स्थान पर पधारे। यह प्रेमपूर्ण मिलन नि:सदेह दोनों सम्प्रदायों की निरभिमानिता और प्रेम परायणता का द्योतक था। यद्यपि आचार्य विनयचन्दजी के आँखों का ऑपरेशन वि०सं० १९५६ में जयपुर में कराया गया था, किन्तु आपरेशन सफल नहीं हुआ। फलतः पूज्य श्री को जयपुर में ही स्थिरवास करना पड़ा। वि०सं० १९७२ मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी के दिन ७५ वर्ष भी उम्र में आपका समाधिमरण हुआ। आपके अनेक शिष्य हुए जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं मुनि श्री हर्षचन्दजी, मुनि श्री गुलाबचन्दजी, मुनि श्री सज्जनमलजी, मुनि श्री सुजानमलजी सेठ, मुनि श्री कस्तूरचन्द्रजी, मुनि श्री भोजराजजी, मुनि श्री अमरचन्द्रजी,मुनिश्री लालचन्द्रजी, मुनि श्री सागरमलजी आदि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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