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________________ धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं मुनि श्री राजमलजी-वि० सं० १९११, विनयचन्द्रजी और कस्तूरचन्दजी (दोनों भाई थे)-वि०सं० १९१२, मंगलसेनजी - वि० सं० १९१३ (पाली में), नवमलजी (रतनगढ़ निवासी)- वि० सं० १९१५, छीतरमलजी- वि०सं० १९१६, जसराजजीवि० सं० १९१९, बालचन्द्रजी - वि० सं० १९१९ (आपकी दीक्षा मुनि श्री मेघराजजी की निश्रा में हई), चन्दनमलजी- वि०सं० १९२० में (मेधराजजी के शिष्य थे), श्री मुल्तान चन्दजी- वि०सं० १९२०, श्री खींवराजजी - वि०सं० १९२७ (आप श्री चन्दनमलजी श्री निश्रा में शिष्य बने), शोभाचन्दजी- वि०सं० १९२७ (जोधपुर में), वि० सं० १९२२ से १९३६ तक के दीक्षा का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। आपने कुछ ४९ चातुर्मास किये बीकानेर-१, रीयां-१, पाली-५, किशनगढ़-२, जयपुर-६, जोधपुर-१० नागौर-१३, अमजेर-११। आपका अन्तिम चातुर्मास अजमेर में हुआ। वहीं वि०सं० १९३६ में वैशाख शुक्ला द्वितीया को आपका स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री कनीरामजी मुनि श्री कनीरामजी जो एक प्रखर वक्ता के रूप में प्रसिद्ध थे, पूज्य आचार्य श्री कजोड़ीमलजी के सहायक मुनियों में से एक थे। आपका जन्म वि०सं० १८५९ मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी को हुआ था। आपके पिता का नाम सेठ कृष्णदासजी मुणोत तथा माता का नाम श्रीमती राऊजी था। बाल्यकाल से ही आपके मन में संसार के प्रति वैराग्य भाव था। वि० सं० १८७० में आपको मुनि श्री दुर्गादासजी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ और आपने उसी वर्ष के पौष कृष्णा त्रयोदशी को उनके सानिध्य में दीक्षा ग्रहण कर ली। तत्पश्चात् आपने स्वामी श्री दलीचन्दजी की सतत सेवा में रहकर अल्पकाल में ही आगमों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। आपकी विद्वता के सामने अच्छे-अच्छे लोग परास्त हो जाते थे। अपने विरोधियों की जिज्ञासाओं को आप आगमिक आधार पर समाधान करते थे। एक बार आप अपनी शिष्य मंडली के साथ पीपाड़ पधारे। वहीं पर रीयां निवासी सेठ हमीरमलजी ने विनती की कि पंजाब में आजीवकपंथ के साधुओं का मतभेद जोर पकड़े हुए है जिससे साधुमार्गी धर्म की हानि हो रही हैं, अत: आप वहाँ पधार कर आये हुए संकट को दूर करने की कृपा करें । मुनि श्री पंजाब पधारे और अपने बुद्धिकौशल से विवाद को समाप्त किया और सकल संघ को पुनः एक कड़ी में जोड़ दिया। ऐसा उल्लेख मिलता है कि संघ की सुन्दर व्यवस्था के लिए आपने पंजाब सम्प्रदाय के मुनि श्री अमरसिंहजी को आचार्य नियुक्त करने में अहम भूमिका निभायी थी। दो सम्प्रदाय के संतों का एक साथ समागम एक आदर्श रूप है। ७७ वर्ष की आयु पूर्ण कर आपने वि० सं० १९३६ में परलोक की ओर प्रयाण किया। आपने अपने संयमपर्याय में ६६ चातुर्मास किये जो इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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