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________________ ३७० स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास दिल्ली-१, किशनगढ़-१, राणीपुर-१, बीकानेर-१, हरसोल-१, कोटा-२, रीया२, जयपुर-८, अजमेर-८, पाली-४, जड़लू-४, पीपाड़-३, नागौर-१५ और जोधपुर-५ चातुर्मास किये। वि०सं० १९५० चैत्र शुक्ला पूर्णिमा को अजमेर में आपका स्वर्गवास हो गया। आचार्य श्री कजोड़ीमलजी रत्नवंश की आचार्य परम्परा में पूज्य आचार्य हम्मीरमलजी के पट्ट पर मुनि श्री कजोड़ीमलजी विराजमान हुए। आप पाँचवें पट्टधर हुये। श्री कजोड़ीमलजी का जन्म ओसवाल वंशीय श्री शम्भूलाल जी के यहाँ हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती वदनाजी था । आपकी जन्म-तिथि कहीं भी स्पष्ट उपलब्ध नहीं होती है। आप जब आठ वर्ष के थे तब आपके पिता व माता दोनों का देहावसान हो गया। माता-पिता के स्वर्गवासी हो जाने के पश्चात् आप अजमेर आ गये। वहीं आपने पूज्य मुनि श्री भेरुमल्लजी के दर्शन किये। पूज्य मुनि श्री से आपने सामायिक, प्रतिक्रमण-सूत्र आदि का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया था। इसी बीच आपका पुण्योदय हुआ और पूज्य आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी अपने शिष्य समुदाय के साथ अजमेर पधारे। आपने पूज्य श्री का प्रवचन सुना। संसार की क्षणभंगुरता और नश्वरता को जाना। ऐसा उल्लेख मिलता है कि मुनि श्री की इन पंक्तियों ने कजोड़ीमलजी को विशेष प्रभावित किया- 'हे सुख चाहनेवालों! परछाइयों को पकड़ने के लिए भागनेवाले इंसान । इस सुख के पीछे दौड़कर हैरान और परेशान मत बनों । सुख बाहर नहीं है। बाहर ढूंढ़ने से सुख नहीं मिल सकता है। बाहर दौड़ना बन्द करो। सुख तुम्हारी ही परछाई है और उसे पकड़ने के लिए बाहर भागने की आवश्यकता नहीं है। अपने मन को पकड़ लो, परछाई अपने आप तुम्हारे हाथ आ जायेगी।' पूज्य श्री की इसी उपदेशधारा ने कजोड़ीमलजी की हृदयधारा को प्रेय से श्रेय की ओर मोड़ दिया। परिणामस्वरूप वि०सं० १८८७ की माघ शुक्ला सप्तमी के दिन अजमेर में आपने दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा धारण करने के पश्चात् विहार-क्रम में रीयां में आपकी बड़ी दीक्षा हुई अर्थात् आपने छेदोपस्थापनीय चारित्र को स्वीकार किया। संयम एवं नियमों का बड़ी उग्रता के साथ आप पालन करते थे। आपका अत्यधिक समय ज्ञान, दर्शन और चारित्र की निर्मल आराधना में ही व्यतीत होता था। ऐसा माना जाता है कि आप एक ही चादर से शीतकाल, ग्रीष्मकाल और वर्षाकाल बिताते थे। आपकी सम्प्रदाय संचालन की विधि, आगमों का ज्ञान, विद्वता आदि की दृष्टि से वि०सं० १९१० माघ शुक्ला पंचमी को शुभ लग्न में २४ साधु-साध्वियों और हजारों श्रावक-श्राविकाओं के मध्य समारोहपूर्वक आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। आपने अपने २६ वर्ष के संयमपर्याय में १३ भव्य जीवों को दीक्षा प्रदान की। दीक्षित १३ मुनियों के नाम व दीक्षा-तिथि इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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