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________________ धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं ३६७ पद प्रदान किया गया। लगभग ५३ वर्ष संयमपर्याय का पालन कर वि० सं० १९०२ ज्येष्ठ पूर्णिमा को आपका नागौर में समाधिमरण हुआ। आचार्य श्री रत्नचन्दजी ने धर्मदासजी की धर्मक्रान्ति के पश्चात् श्रमण वर्ग में जो शिथिलता आ गयी थी उसके निवारण का प्रयास किया और आगमानुकूल सामाचारी पर विशेष ध्यान दिया। जोधपुर के दीवान लक्ष्मीचन्दजी मुथा आपके परम भक्तों में से थे। आपकी साहित्यिक साधना भी विशिष्ट थी। आपने आगमों का गंभीर अध्ययन किया था। अनेक बार आपके समक्ष विभिन्न परम्पराओं से प्रश्न उपस्थित किये गये जिसका आपने आगमिक आधारों पर समाधान किया था। उनका ज्ञान मात्र ज्ञान नहीं था बल्कि उन्होंने उसे अपने जीवन में भी उतारने का प्रयत्न किया। उनके द्वारा रचित अनेक पद और कुण्डलियाँ मिलती हैं। ५१ कुण्डलियों और पदों में आपके द्वारा रात्रि भोजन निषेध सम्बन्धी कुण्डलियाँ विशिष्ट हैं। आपने वि०सं० १८४८ में दीक्षा धारण करने के पश्चात् वि०सं० १८५८ तक के चातुर्मास अपने गुरुदेव के साथ रह कर ही पूर्ण किये। इसके पश्चात् वि० सं० १८५९ से आपने स्वतन्त्र चातुर्मास किये, जो निम्न हैंवि० सं० स्थान वि० सं० स्थान १८५९ पाली १८७१ अजमेर १८६० पीपाड़ १८७२ जोधपुर १८६१ १८७३ किशनगढ़ १८६२ पाली १८७४ पाली १८६३ १८७५ नागौर १८६४ १९७६ जोधपुरं १८६५ १८७७ १८६६ १८७८ १८६७ जोधपुर १८७९ जोधपुर १८६८ १८८० पाली १८६९ नागौर १८८१ अजमेर १८७० पाली १८८२ जोधपुर आगे की चातुर्मास सूची उपलब्ध नहीं हो सकी है। आचार्य श्री हम्मीरमलजी. पूज्य आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी के पश्चात् मुनि श्री हम्मीरमलजी आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। आप इस परम्परा के चौथे आचार्य थे। श्री हम्मीरमलजी का जन्म नागौर के प्रतिष्ठित सेठ धर्मनिष्ठ ओसवालवंशीय श्री नगराजजी के यहाँ हआ। आपकी माता का नाम श्रीमती ज्ञानकुमारी था। आपकी जन्म-तिथि का उल्लेख नहीं मिलता है। आप मेड़ता or पीपाड़ रायपुर जोधपुर or मेड़ता नागौर पाली जोधपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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