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________________ ३६६ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास बालक रत्नचन्द को माता-पिता के वात्सल्य के साथ-साथ सुन्दर संस्कार भी प्राप्त हए। संयोग से नागौर निवासी सेठ गंगारामजी ने आपको वि०सं० १८४० में गोद ले लिया और आपके शिक्षण आदि का समुचित प्रबन्ध किया। वि०सं० १८४७ में आचार्य श्री गुमानचन्दजी का नागौर में चातुर्मास था। उस समय सेठ गंगारामजी के साथ-साथ बालक रत्नचन्दजी आचार्य गुमानचन्दजी के व्याख्यान आदि में जाया करते थे। आचार्य श्री गुमानचन्दजी के सम्पर्क और उपदेश से आपके मन में वैराग्य के बीज अंकुरित हुये। इसी बीच आपके पिता श्री गंगारामजी का देहावसान हो गया और उनके इस अवसान से बालक के वैरागी मन में और अधिक वृद्धि हुई। बालक रत्नचन्दजी की भावना दीक्षा लेने की हुई, किन्तु माता की अनुमति न मिलने के कारण उन्हें बहुत समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी अन्त में वे नागौर छोड़कर अज्ञात स्थान की ओर चल दिये। नागौर छोड़ने के पश्चात् वे गाँवों में भिक्षावृत्ति करते हुए मंडोर तक जा पहुंचे। आचार्य गुमानचन्दजी ने अपने शिष्य मुनि श्री लक्ष्मीचन्दजी को मंडोर की तरफ भेजा। मंडोर में वि०सं० १८४८ की वैशाख शुक्ला पंचमी को रत्नचन्दजी को दीक्षा दी गयी। वहाँ से विहार करके मनि लक्ष्मीचन्दजी जोधपुर आये और वहाँ विराजित मुनि श्री दुर्गादासजी के निर्देश पर मेवाड़ और मालवा के क्षेत्रों में विहार करते रहे। विहार के साथ-साथ मुनि रत्नचन्दजी की शिक्षा भी चलती रही। इनकी माता ने उनकी खोज का भी बहुत प्रयत्न किया। यहाँ तक कि जोधपुर के शासक महाराज विजयसिंहजी से भी उनकी खोज के लिए निवेदन किया, किन्तु उस समय मुनि श्री रत्नचन्दजी तो मेवाड़ में थे, अत: माता का प्रयत्न सफल नहीं हुआ। मेवाड़ में तीन वर्ष बिताकर मुनि श्री रत्नचन्दजी ने चतुर्थ चातुर्मास पीपाड़ में तथा पंचम चातुर्मास पाली में किया। ___ पाली चतुर्मास में माता राज्याधकारियों के साथ उन्हें वापस लेने के लिए पहुँची किन्तु मुनि रत्नचन्दजी ने माता को अपने वैराग्यमय उपदेश से अपने अनुकूल बना दिया और माता उनसे नागौर पधारने का आग्रह करने लगी। आपने माता का मन रखने के लिए उन्हें आश्वासन दे दिया कि मैं यथासमय अवश्य आऊँगा। कालान्तर में आप नागौर पधारे। आपके उपदेशों से वहाँ की जनता अत्यन्त आह्लादित हुई। संघप्रमुख श्री गुमानचन्दजी के स्वर्गवास के पश्चात् आपको आचार्य पद देने का निश्चय किया गया। यहाँ तक कि स्थविर मुनि श्री दुर्गादासजी ने स्वयं आपसे आचार्य पद स्वीकार करने के लिए आग्रह किया, किन्तु संयम स्थविर मुनि श्री दुर्गादासजी की उपस्थिति में आपने आचार्य पद को स्वीकार नहीं किया। आप मुनि श्री दुर्गादासजी को आचार्य मानते रहे और मुनि श्री दुर्गादास जी आपको । यह एक विलक्षण घटना थी। कहीं-कहीं तो आचार्य पद के लिए विघटन तक हो जाते हैं और कहीं राम और भरत की तरह आचार्य पद एक-दूसरे की प्रतीक्षा ही करता रहा। मुनि श्री दुर्गादासजी के स्वर्गवास में पश्चात् वि०सं० १८८२ मार्गशीर्ष शुक्ला त्रयोदशी को आपको आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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