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________________ ३६५ धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं मुनि श्री दौलतरामजी आपकी दीक्षा मुनि श्री गुमानचन्दजी के सानिध्य में वि०सं० १८२९ को पाली में हुई। तैतीस वर्ष तक आप छ: विगयों का त्याग करके रुक्ष आहार करते रहे। आपका स्वर्गवास वि० सं०१८६२ में हुआ। मुनि श्री प्रेमचन्दजी आपने वि०सं० १८२८ को जालौर में दीक्षा ग्रहण की । आपके जीवन से अनेक अलौकिक और चमत्कारपूर्ण घटनायें जुड़ी हैं। वि०सं० १८६९ में आपका स्वर्गवास हो गया। इस प्रकार ४१ वर्षों तक आपने अपने तपस्वी जीवन में तप के प्रभाव से सामान्यजन के हृदय में जिनशासन की गरिमा को बढ़ाया। मुनि श्री लक्ष्मीचन्दजी आपकी दीक्षा वि०सं० १८२७ में नागौर में हुई। आपने ३५ वर्ष तक केवल एक ही चादर से निर्वाह किया। वि०सं० १८६८ में आपका स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री ताराचन्दजी आपकी दीक्षा वि०सं० १८४१ में मुनि श्री गुमानचन्दजी के सान्निध्य में हुई। आप संयम-साधना के प्रति सर्वदा जागरूक रहते थे। आपने पांच विगयों का आजीवन त्याग कर दिया था तथा बेले-बेले पारणा करते थे। आपका स्वर्गवास वि०सं० १८५३ में हुआ। मुनि श्री दुर्गादासजी आपका जन्म वि०सं० १८०६ को सालरिया ग्राम के ओसवाल वंश में हआ था। आपके पिता का नाम श्री शिवराजजी एवं माता का नाम श्रीमती सेवादेवी था। वि०सं० १८२१ में मेवाड़ के ऊंटाला (वर्तमान बल्लभनगर) नामक ग्राम में आचार्य श्री कशलाजी के सान्निध्य में आपकी दीक्षा हुई। आप पूज्य रत्नचन्दजी के नाना गुरु थे यही कारण था वे आपका बड़ा सम्मान करते थे। आपने मारवाड़, मेवाड़ आदि क्षेत्रों में दयाधर्म का खूब प्रचार-प्रसार किया और अनेक भव्य जीवों को धर्म-मार्ग पर आरुढ़ किया। वि०सं० १८८२ में चातुर्मास काल में ही श्रावण शुक्ला एकादशी को ७६ वर्ष की आयु में आप समाधिमरण को प्राप्त हुये। आचार्य श्री रत्नचन्दजी. मुनि श्री गुमानचन्दजी के पश्चात् उनके शिष्य मुनि श्री रत्नचन्दजी आचार्य हए। इस परम्परा के आप तीसरे पट्टधर थे। आगे चलकर इन्हीं के नाम पर यह सम्प्रदाय चली। रत्नचन्दजी का जन्म राजस्थान के कुड़गाँव में हुआ था। आपके पिता श्री लालचन्दजी बड़जात्या और माता हीरादेवी थी। आप सरावगी (दिगम्बर जैन) वंश में उत्पन्न हुए थे। आपकी जन्म-तिथि वि०सं० १९३४ वैशाख शुक्ला पंचमी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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