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________________ ३६८ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास जब ११ वर्ष के थे तब आपके पिता का देहान्त हो गया। काल की इस विचित्र लीला ने आपको और आपकी माता को झकझोर कर रख दिया। पिता के देहावसान के पश्चात् आपकी माता आपको लेकर अपने पीहर (मैके) पीपाड़ आ गयी जहाँ आप दोनों का आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी की शिष्या महासती बरजजी से समागम हआ। महासतीजी के प्रवचन से आपकी माता बहुत प्रभावित हुईं। फलतः उनके मन में वैराग्य का बीच वपित हुआ। वैराग्य का रंग जब गहरा हुआ तब आपकी माताजी ने महासतीजी से अपने मन की भावना व्यक्त की कि मेरी प्रबल इच्छा है कि मैं चारित्र धर्म अंगीकार करूँ और साथ ही अपने पुत्र को भी इसी कल्याणकारी मार्ग का पथिक बनाऊँ। महासतीजी ने उनसे इसी भावना को आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी की सेवा में जाकर व्यक्त करने को कहा, तदनुसार ऐसा ही हुआ और वि०सं० १८६३ फाल्गुन कृष्णा सप्तमी को ११ वर्ष की उम्र में श्री हम्मीरमलजी की दीक्षा हुई । इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आपका जन्म वि० सं० १८५२ में हुआ, क्योंकि दीक्षा के समय आपकी उम्र ११ वर्ष बतायी गयी है। साथ ही आपकी माता ने महासती श्री बरजूजी के पास संयममार्ग को अपनाया । आचार्य श्री के सान्निध्य में मुनि श्री हम्मीरमलजी ने अध्ययन प्रारम्भ किया । तीक्ष्ण-बुद्धि, विनयशीलता और कठोर परिश्रम से अल्प काल में ही आपने अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। आप अध्ययन के साथ-साथ तप और संयम पर भी विशेष ध्यान रखते थे। आपने चार वर्ष तक निरन्तर एकान्तर तप किये। इसके साथ-साथ बेला, तेला, पाँच अट्ठम आदि तप भी करते थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। वि०सं०१९०२ आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी के दिन चतुर्विध श्रीसंघ ने आपको बड़े समारोह के साथ आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। आपके आचार्यत्व काल में जिनशासन की अच्छी प्रभावना हुई। 'विनयचन्द्र चौबीसी' के रचयिता भक्तवर विनयचन्दजी पर आपकी भक्ति का ही प्रभाव है। वि०सं० १९१० कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा को नागौर में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके अक्षर बहुत सुन्दर थे और आपने विभिन्न शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ तैयार की जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं 'चन्द्रप्रज्ञप्ति', 'सूर्यप्रज्ञप्ति टब्बार्थ', 'अनुयोगद्धारसूत्र टब्बार्थ', 'निरयावलिका टब्बार्थ', 'उपदेश-रत्नकोश' (षत्रिंशिका) व्याख्या पृष्ठ-१३, 'द्रौपदी चर्चा' पृष्ठ२१, रत्नसंचय' पृष्ठ-१८, 'बनारसी विलास' पृष्ठ-३१, 'तेरहपन्थचर्चा' पृष्ठ१३, 'भगवती हुण्डी', 'सूत्र संग्रह' पृष्ठ-१५, 'समयसार' पृष्ठ-१४, 'सामुद्रिक' पृष्ठ-४, 'हेमपंडक' पृष्ठ-६, 'आचारांगसूत्र' द्वितीय श्रुतस्कन्ध पृ०-११५, 'तेरह ढाल' पृष्ठ-५, 'स्वरचित पूज्य गुरु चौ. ढा.' प. ४, 'प्राणहुंडी' प. १३, 'संग्रहणी ट.' सचित्र आदि। __आपने अपने संयमपर्याय में कुल ४८ चातुर्मास किये जिनमें ३९ चातुर्मास आपने गुरुवर्य श्री रत्नचंद्रजी की सेवा में रहकर किये । मात्र ९ चातुर्मास आपने स्वतंत्र किये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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