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________________ ३५८ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास आचार्य पट्ट पर मुनि श्री हीराचन्दजी विराजित हुए। मुनि श्री हीराचन्दजी का जन्म वि०सं० १८५४ भाद्र शुक्ला पंचमी को राजस्थान के बिराई ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम श्री नरसिंहजी कांकरिया तथा माता का नाम श्रीमती गुमानदेवी था। आपकी दीक्षा-तिथि वि०सं० १८६४ आश्विन कृष्णा तृतीया है। आपकी दीक्षा सोजतनगर में आचार्य श्री आसकरणजी द्वारा सम्पन्न हुई। वि०सं० १९०३ आषाढ़ शुक्ला नवमी को जोधपुर में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। अपने आचार्य काल में आपने पाँच शिष्यों को दीक्षित किया। आपके पाँच शिष्यों के नाम हैं- श्री किशनजी, श्री कल्याणजी, श्री कस्तूरचन्दजी, श्री मूलचन्दजी और श्री भीकमचन्दजी। काव्य रचना में आपकी विशेष रुचि थी । वि०सं० १९२० फाल्गुन कृष्णा सप्तमी को आपका स्वर्गवास हो गया। आप १७ वर्ष तक आचार्य पद पर आसीन होकर जिनशासन की गरिमा बढ़ाते रहे। आचार्य श्री कस्तूरचन्दजी आचार्य श्री जयमल्लजी की परम्परा के छठे पट्टधर के रूप में मुनि श्री कस्तूरचन्दजी का नाम आता है। श्री कस्तूरचन्दजी का जन्म विलासपुर में वि०सं० १८९८ फाल्गुन कृष्णा तृतीया को हुआ था। आपके पिता का नाम नरसिंहजी मुणोत तथा माता का नाम श्रीमती कुन्दना देवी था। किन्तु जहाँ तक जन्म-तिथि का प्रश्न है तो इस सम्बन्ध में दूसरी मान्यता भी मिलती है। जहाँ जयध्वज में छपी पट्टावली तथा स्वामी श्री चौथमलजी की 'पूज्य गुणमाला' नामक पुस्तक में इनकी तिथि वि०सं० १८८९ फाल्गुन कृष्णा तृतीया बतायी गयी है, वहीं 'मुनि श्री हजारीमलजी स्मृति ग्रन्थ' तथा 'ज्योतिर्धर जय' में वि०सं० १८९८ का उल्लेख है । इसी प्रकार इनकी दीक्षा-तिथि को लेकर भी दो मत देखने को मिलते हैं। एक मत इनकी दीक्षा-तिथि वि०सं० १८९८ मानती है, जबकि दूसरी मान्यता वि०सं० १९०७ को स्वीकार करती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य श्री की जन्म-तिथि और दीक्षा-तिथि में मतभेद है, किन्तु दीक्षा-स्थान के विषय में कोई मत वैभित्र्य नहीं है। इनकी दीक्षा राजस्थान के पाली में आचार्य हीराचन्दजी द्वारा सम्पन्न हुई थी। आप वि०सं० १९२० फाल्गुन शुक्ला पंचमी को आचार्य पद पर सुशोभित हुए। आपके चार शिष्य हुये - श्री प्रतापमलजी, श्री सोहनलालजी, श्री मूलचन्दजी और श्री भीकमचन्दजी, किन्तु मूलरूप से इनके दो शिष्य ही कहे जायेंगे जिन्होंने इनसे दीक्षा ग्रहण की- श्री प्रतापमलजी और श्री सोहनलालजी। श्री मूलचन्दजी और श्री भीकमचन्दजी तो इनके गुरु भ्राता थे। इनकी स्वर्गवास तिथि के विषय में भी दो मत मिलते हैं । एक की मान्यता है आचार्य श्री कस्तूरचन्दजी का स्वर्गवास वि०सं० १९६० भाद्र शुक्ला पंचमी को हुआ तो दूसरी मान्यता है वि०सं० १९६८ में हुआ। किन्तु विचारात्मक दृष्टि से देखा जाये तो स्वर्गवास की प्रथम मान्यता ही समुचित जान पड़ती है, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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