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धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं खण्डकाव्य और मुक्तक दोनों प्रकार के काव्यों की रचना की है, जैसे- 'जयमल्लजी', 'गजसुकुमाल', 'केशी गौतम', 'नमिराजजी', 'धन्नाजी', 'पार्श्वनाथ', 'कालीरानी', 'मुनि जयघोष-विजयघोष', 'निषधकुमार', 'भरत की ऋद्धि', 'नेमिनाथ', 'जीव परिभ्रमण', तप-महिमा', 'स्तुति', 'साधु वन्दना', 'सज्झाय', 'स्वर्ग आयुष्य के दसबोल', 'साधु संगति', 'गुरु महिमा', 'विनय का महत्त्व', 'तेरह काठिया', 'देवलोक का वर्णन', 'पर्युषण पर्व', 'शील महिमा', 'दान', 'उपदेशी पद', 'काल का अविश्वास', 'तेरा कोई नहीं', 'पर-नारी', 'गौतम को संदेश', 'तृष्णा', 'बारहमासा', 'निन्दक इक्कीसी', 'भाव पच्चीसी', 'सीख मोह बेरी', 'संसार की माया', 'कांची सद्गुरु की महिमा सांची', 'पञ्चम आरे का सुख' (यह कृति अपूर्ण है।) 'धर्म की दलाली', 'अष्टापद पाप', 'सामायिक व्रत', 'होनहार' आदि। 'आचार्य देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री' ने भी इन रचनाओं का उल्लेख किया है। वि०सं०१८५७ आषाढ़ कृष्णा पंचमी को आचार्य श्री रायचन्द्रजी ने आपको युवाचार्य पद प्रदान किया और वि०सं० १८६८ माघ पूर्णिमा को आप आचार्य पद पर आसीन हुए। आपके दस शिष्य हुए जिनके नाम इस प्रकार हैं - श्री सबलदासजी, श्री हीराचन्दजी, श्री ताराचन्दजी, श्री कपूरचन्दजी, श्री बुधमलजी, श्री नगराजजी, श्री सूरतरामजी, श्री शिवबख्सजी, श्री बच्छराजजी और श्री टीकमचन्दजी। आपका स्वर्गवास वि०सं० १८८२ कार्तिक कृष्णा पंचमी को हुआ। आप आचार्य पद पर कुल १४ वर्ष तक आसीन रहे। आचार्य श्री सबलदासजी
आचार्य श्री आसकरणजी के बाद मुनि श्री सबलदासजी आचार्य पद पर आसीन हुए। आपका जन्म वि०सं०१८२८ भाद्र शुक्ला पंचमी को राजस्थान के पोकरण ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम श्री आनन्दराज लूणिया तथा माता का नाम श्रीमती सुन्दरदेवी था। आपने १४ वर्ष की अवस्था में वि०सं० १८४२ मार्गशीर्ष शुक्ला तृतीया को बुचकला (राजस्थान) में आचार्य श्री आसकरणजी से दीक्षा ग्रहण की। आगम साहित्य के अध्ययन एवं काव्य रचना में आपकी विशेष रुचि थी। वि०सं० १८८१ चैत्र शुक्ला पंचमी को आपको युवाचार्य पद प्रदान किया गया एवं माघ शुक्ला त्रयोदशी वि०सं० १८८२ को जोधपुर में आप आचार्य पद पर आसीन हुए। आपके पाँच शिष्य हुए जिनमें चार के ही नाम उपलब्ध होते हैं - श्री वृद्धिचन्दजी, श्री पृथ्वीचन्दजी, श्री कर्मचन्दजी और श्री हिम्मतचन्दजी। बारह वर्षों तक आचार्य पद पर आसीन हो जिनशासन की सेवा करते हुए वि०सं० १९०३ वैशाख शुक्ला नवमी को आप स्वर्गस्थ हुये। आचार्य श्री हीराचन्दजी
आचार्य श्री जयमल्लजी की परम्परा में आचार्य सबलदासजी के पश्चात् पाँचवें
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