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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास की दृष्टि से आपकी भाषा राजस्थानी मिश्रित है। आपकी रचना में राजस्थान की लोक संस्कृति, लोक-व्यवहार, लोक-भावना का सही प्रतिबिम्ब निहारा जा सकता है। वि०सं० १८५३ वैशाख शुक्ला चतुर्दशी (नृसिंह चौदस) को नागौर में आपका स्वर्गवास हो गया । आप ४८ वर्षों तक आचार्य के पद पर आसीन रहे। आचार्य श्री रायचन्द्रजी
आचार्य श्री जयमल्लजी के स्वर्गवास के बाद आचार्य पट्ट पर श्री रायचन्द्रजी विराजित हुए। श्री रायचन्द्रजी का जन्म वि०सं० १७९६ आश्विन शुक्ला एकादशी को जोधपुर में हुआ। आपके पिता का नाम श्री विजयराजजी धारीवाल तथा माता का नाम श्रीमती नंदादेवी था। वि०सं० १८१४ आषाढ़ शुक्ला एकादशी को आपने आचार्य जयमल्लजी से आहती दीक्षा ग्रहण की। आपने अपने श्रमण जीवन में अनेक चरित्र काव्यों की रचना की। आचार्य देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री के अनुसार मरुदेवी माता, बलभद्र, शालिभद्र, ऋषभदेव, नन्दन मणिहार, धनवन्तरि वैद्य, भृगुपुरोहित, दुर्योधन कोतवाल, उज्झित कुमार, हरिकेशी अनगार, अतिमुक्तकुमार, स्कंदक धनमित्र, आषाढ़ भूति, कलावती, मृगलेखा, नर्मदा, पुष्पचूला, मैतार्य, रथनेमि, बहुपुत्तिया देवी, जिनरक्षित-जिनपाल आदि ऐतिहासिक एवं पौराणिक दोनों प्रकार के चरित्र काव्यों की रचना की है।२ वि०सं० १८४९ में आचार्य श्री जयमल्लजी द्वारा आप युवाचार्य घोषित किये गये और वि० सं० १८५३ ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया को नागौर में आपको आचार्य पद प्रदान किया गया। आपने अपने आचार्यत्व काल में सात शिष्यों को दीक्षा प्रदान की, किन्तु चार शिष्यों के विषय में ही जानकारी प्राप्त होती है। उन चारों शिष्यों के नाम इस प्रकार हैं- श्री दीपचन्दजी, श्री गुमानचन्दजी, श्री कुशलचन्दजी और श्री धनरूपजी। वि० सं० १८६८ माघ कृष्णा चतुर्दशी को जोधपुर में आपका स्वर्गवास हो गया। आपका आचार्यत्व काल १५ वर्षों का रहा। आचार्य श्री आसकरणजी
स्थानकवासी आचार्य परम्परा में मुनि श्री आसकरणजी को सम्मानीय स्थान प्राप्त है। श्री आसकरणजी का जन्म वि०सं० १८१२ मार्गशीर्ष द्वितीया को राजस्थान के तिवरी ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम श्री रूपचन्दजी बोथरा और माता का नाम श्रीमती गीगांदेवी था। ऐसी जनश्रुति है कि आपके माता-पिता बाल्यकाल में ही आपका विवाह करना चाहते थे, किन्तु आपने यह कहकर कि 'मुझे आचार्य श्री जयमल्लजी से आहती दीक्षा ग्रहण करनी है, विवाह से इन्कार कर दिया। आप वि०सं० १८३० वैशाख कृष्णा पंचमी को १८ वर्ष की आयु में तिवरी में ही पूज्य आचार्य श्री जयमल्लजी के कर-कमलों से दीक्षित हुए। आप उग्र तपस्वी एवं साधक के रूप में जाने जाते थे। साथ ही आप एक अच्छे कवि और वक्ता भी थे। आपने
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