________________
३५५
धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं (२) आचार्य श्री जयमल्लजी और उनकी परम्परा आचार्य जयमल्लजी
स्थानकवासी परम्परा में आचार्य श्री जयमल्लजी का विशिष्ट स्थान है। आपका जन्म राजस्थान के मेड़ता के निकट लम्बिया ग्राम में वि०सं०१७६५ भाद्र शुक्ला त्रयोदशी को हुआ । आपके पिता का नाम श्री मोहनलालजी और माता का नाम श्रीमती महिमादेवी था। आप जाति से समदड़िया मेहता गोत्रीय बीसा ओसवाल परिवार के थे। जनश्रुति है कि एक बार आप सामान लेने हेतु मेड़ता गये। वहाँ के सभी व्यापारी दुकान बन्द करके मुनि श्री भूधरजी का प्रवचन सुनने गये थे। आप भी वहाँ पधारे। प्रवचन में ब्रह्मचर्य के प्रसंग पर सेठ सुदर्शन का इतिवृत्त चल रहा था। आपने प्रारम्भ से लेकर अन्त तक सेठ सुदर्शन की कथा सुनी। कथा सुनकर आपके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ और आपने प्रवचन सभा में ही आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया। एक दृढ़ अध्यात्मयोगी बनने का संकल्प लेकर माता-पिता, भाई-बन्धु, पत्नी आदि के प्यार को तिलाञ्जलि देते हुए वि० सं० १७८७ मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया को मेड़ता में आचार्य भूधरजी से आपने दीक्षा ग्रहण की। आप प्रारम्भ से ही विलक्षण स्मरण शक्ति के धनी थे। ऐसा कहा जाता है कि आपने स्वल्प काल में ही श्रमण प्रतिक्रमण कण्ठस्थ कर लिया था। मुनि श्री चौथमलजी के अनुसार आपने कप्पिया, कप्पवडंसिया, पुप्फिया, पुप्फचूलिया, वह्निदशा ये पाँच शास्त्र मात्र एक प्रहर में कण्ठस्थ कर लिये थे।' वि०सं० १८०४ आश्विन शुक्ला दशमी दिन शुक्रवार को आचार्य भूधरजी का स्वर्गवास हो गया। आचार्य भूधरजी के स्वर्गवास के पश्चात् वि० सं० १८०५ अक्षय तृतीया को जोधपुर में आप आचार्य पद पर आसीन हुए। आपके दैनन्दिन क्रिया-कलापों के विषय में एक जनश्रुति है कि आप ५० वर्षों तक लेटकर नहीं सोये। आप कुशल प्रवचनकार, कठोर तपस्वी, प्रखर स्मरणशक्ति के धनी, संकल्प में वज्र के समान कठोर थे। ऐसी मान्यता है कि आपने श्रमण जीवन में प्रवेश करते ही एकान्तर तप की आराधना आरम्भ कर दी थी, जो १६ वर्षों तक चली। साध्वी श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' के अनुसार आपके द्वारा रचित ७०-७५ ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं तथा आपके ५१ शिष्य थे। आचार्य देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री के अनुसार आपके द्वारा रचित ७१ रचनाओं का संकलन 'जयवाणी' के रूप में प्रकाशित है,जो चार खण्डों में विभाजित है।
प्रथम खण्ड में स्तुति है, द्वितीय में सज्झाय, तृतीय में उपदेशी पद तथा चतुर्थ में चरित है। इसके अतिरिक्त भी आपकी बीसों रचनाएँ विमयचन्द ज्ञान भण्डार, जयपुर एवं जयमल्ल ज्ञान भण्डार, पीपाड़ में विद्यमान हैं। इतना ही नहीं आपने धर्मकथानुयोग और चरण-करणानुयोर्ग पर विशेष रूप से लेखन कार्य किया है। भाषा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org