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________________ धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं ३४९ मोतीलालजी के पश्चात् मुनि श्री रूपचन्दजी 'रजत' इस परम्परा में विद्यमान है। संतोषचन्दजी के द्वितीय शिष्य धैर्यमलजी अलग विचरण करने लगे जिनके शिष्य श्री महेन्द्रमुनिजी हुये। धन्नाजी ___ आपका जन्म वि०सं० १७०१ चैत्र शुक्ला दशमी को सांचेर के मालवाड़ा ग्राम में हआ। आपके पिता का नाम श्री बगाजी मूथा और माता का नाम श्रीमती झमकुबाई था। किसी व्यक्ति द्वारा साँप को मारते हुये देखकर आपके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। फलत: वि०सं० १७२१ के कार्तिक शुक्ल पक्ष में आपने क्रियोद्धारक धर्मदासजी के श्री चरणों में दीक्षा ग्रहण की। वि०सं० १७८४ में आपका स्वर्गवास हो गया। आपके पाँच शिष्य थे- श्री भूधरजी, श्री मूलचन्दजी, श्री रूपचन्दजी श्री नवलमलजी और श्री देवीचन्दजी। भूधरजी आपका जन्म १७१२ में विजयादशमी के दिन नागौर के मुणोयतखाप नामक ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम श्री माणकचन्दजी व माता का नाम श्रीमती रूपादेवी था। अट्टाइस वर्ष की उम्र में डाकुओं द्वारा घोड़े का सिर कटते हुए देखकर आपके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। वैराग्यमय मन शान्त न हो सका। परिणामत: आपने पोतियाबन्ध पंथ को स्वीकार कर लिया। कुछ समय इस पंथ के अनुयायियों के साथ रहने के पश्चात् भी आपको शान्ति नहीं मिली तो वि०सं० १७५१ फाल्गुन शुक्ला पंचमी के दिन पूज्य धन्नाजी के शिष्यत्व में आपने दीक्षा ग्रहण कर ली। आपे ९ शिष्य थे। शिष्यों के नाम उपलब्ध नहीं हैं। वि० सं० १८०४ में विजयादशमी के दिन आप स्वर्गस्थ हुये। (१) आचार्य रधुनाथजी और उनकी परम्परा आपका जन्म सोजतनगर में हुआ। आपके पिता का नाम श्री नथमलजी शाह और माता का नाम श्रीमती सौमादेवी था। श्री नथमलजी रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी थे। ऐसी जनश्रुति है कि गर्भकाल में आपकी माता ने 'श्रीराम' को देखा था, इस कारण से आपका नाम रधुनाथ रखा गया। आपकी जन्म-तिथि, दीक्षा तिथि आदि की कोई जानकरी उपलब्ध नहीं होती है। इतना ज्ञात होता है कि वि०सं० १८०४ में पूज्य श्री भूधरजी के स्वर्गवास के पश्चात् आपने संघ की बागडोर सम्भाली। वि०सं० १८८६ में माघ शुक्ला एकादशी को सतरह दिनों के संथारे के साथ आपका स्वर्गवास हो गया। आपके २२ शिष्य, ५० प्रशिष्य और ६५ प्रपौत्र शिष्य हुये। आपके द्वितीय शिष्य से तेरापंथ परम्परा का उदय हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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