SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४८ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास अधिक मुक्तक रचनाएँ जैन साहित्य को प्रदान की हैं। मुक्तक काव्यों में आपने सामाजिक, धार्मिक, व्यावहारिक तथा जीवन नीति आदि विभिन्न क्षेत्रों को स्पर्श किया है। आप ज्योतिष विद्या के अच्छे जानकार हैं। आपने अपने संयमजीवन के २० वर्ष गुरु-सेवा में बरनाला मंडी में व्यतीत किये। वर्तमान में आप गीदड़वाड़ा (फरीदकोट) में विद्यमान हैं। (ब) धन्नाजी और उनकी मारवाड़ की परम्पराएं क्रियोधारक धर्मदासजी के २२ शिष्यों में से द्वितीय शिष्य धन्नाजी थे। धन्नाजी के पाट पर उनके शिष्य भूधरजी विराजित हुये। भूधरजी से तीन शाखायें निकली। प्रथम शाखा रधुनाथजी के नेतृत्व में विद्यमान रही। द्वितीय व तृतीय शाखा क्रमश: जयमल्लजी और कुशलोजी के नेतृत्व में विकसित हुईं। ये तीनों परम्परायें शाखाउपशाखा के रूप में आज भी विद्यमान हैं। जयमल्लजी से जो परम्परा चली उसमें वर्तमान में विनयमुनि 'भीम' हैं। कुशलोजी से विकसित हुई परम्परा, जो 'रत्नचन्द्र सम्प्रदाय' के नाम से जानी जाती है, उसमें श्री हीराचन्द्रजी विद्यमान हैं। इन दोनों परम्पराओं का परिचय आगे दिया जायेगा। प्रथम शाखा जिसमें भूधरजी के पाट पर रधुनाथजी विराजित हुये, कुछ समयोपरान्त वह दो भागों में विभाजित हो गयी। रधुनाथजी के द्वितीय शिष्य भीखणजी ने उनसे अलग होकर तेरापंथ सम्प्रदाय की स्थापना की। जिसमें वर्तमान आचार्य महाप्रज्ञजी हैं। इस परम्परा में ६९१ साधु-साध्वी विद्यमान हैं। श्री रधुनाथजी के पश्चात् श्री टोडरमलजी ने संघ की बागडोर सम्भाली। टोडरमलजी के पश्चात् संघ पुन: दो भागों में विभाजित हो गया जिसमें एक का नेतृत्व इन्द्रराजजी ने किया तो दूसरे का भेरुदासजी ने किया। इन्द्रराजजी की परम्परा में हरिदासजी पट्टधर के रूप में विराजित हये। हरिदासजी के पश्चात् केशरीचन्दजी, केशरीचन्दजी के पश्चात् जीवराजजी विराजित हये। जीवराजजी के पश्चात् संघ पुन: दो भागों में विभाजित हो गया। केशरीचन्दजी के शिष्य श्री वेणीचन्दजी व वेणीचन्दजी के शिष्य मानमलजी संघ से अलग विचरण करने लगे। उधर जीवराजजी के पट्ट पर बड़े मानमलजी विराजित हये। बड़े मानमल जी के पश्चात् श्री बुद्धमलजी और बुद्धमलजी के पश्चात मरुधर केसरी मिश्रीमलजी ने संघ की बागडोर सम्भाली। वर्तमान में श्री मिश्रीमलजी (कड़क मिश्री) के शिष्य श्री सुकनमुनि जी विद्यमान हैं। आचार्य हस्तीमलजी ने 'जैन आचार्य चरितावली' में भेरुदासजी के पश्चात् जैतसीजी को पट्टधर माना है तथा यह उल्लेख किया है कि जैतसीजी से दूसरी परम्परा चली जिसमें उम्मेदमलजी, सुलतानमलजी और चतुर्भुजजी आदि सन्त हुये, किन्तु यह परम्परा आगे नहीं चली। 'मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ' के अनुसार भेरुदासजी की परम्परा में श्री भेरुदासजी के पश्चात् श्री लक्ष्मीचन्दजी ने संघ की बागडोर संभाली। श्री लक्ष्मीचन्दजी के पट्टधर श्री फौजमलजी हुये। श्री फौजमलजी के पश्चात् श्री संतोषचन्दजी, श्री संतोषचन्दजी के पश्चात् श्री मोतीलालजी और श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy