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________________ ३०० स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास . आचार्य श्री मूलचन्दजी स्वामी के पाँचवें शिष्य मुनि श्री विठ्ठलजी स्वामी के शिष्य मुनि श्री भूषणजी मोरवी तरफ पधारे तथा उनके शिष्य मुनि श्री वशरामजी ध्रांगध्रा पहुँचे और ध्रांगध्रा सम्प्रदाय की स्थापना की। आचार्य श्री मूलचन्द जी स्वामी के सातवें शिष्य मुनि श्री इच्छाजी स्वामी के शिष्य मुनि श्री रामजीऋषि (छोटे) उदयपुर पधारे और उदयपुर संघाड़ा की स्थापना की। इस प्रकार लीम्बड़ी, गोंडल, वरवाला, चुड़ा, ध्रांगध्रा (बोटाद), सायला और उदयपुर- इन सात सम्प्रदायों की स्थापना हुई। यह निर्णय वि०सं० १८४५ में लीम्बड़ी सम्मेलन में लिया गया, ऐसा कहा जा सकता है। इन सम्प्रदायों के अतिरिक्त एक सम्प्रदाय कच्छ आठ कोटि का भी नाम आता है। इस सम्प्रदाय के विषय में ऐसी मान्यता है कि मनि श्री मूलचन्दजी के छठे शिष्य स्थविर श्री इन्द्रचन्द्रजी स्वामी और कुछ साधुवृन्द वि०सं० १७७२ में कच्छ पधारे। वि०सं० १७८६ में श्री सोमचन्दजी ने आपसे दीक्षा ग्रहण की और आपके शिष्य बने। कुछ वर्षों के पश्चात् बलदिया ग्राम के निवासी श्री कृष्णजी और उनकी माता श्रीमती मृगाबाई भुज में वि०सं० १८१६ कार्तिक कृष्णा एकादशी को दीक्षित हुई। इसी प्रकार वि०सं० १८३२ में देवकरणजी स्वामी तथा वि०सं० १८४२ में डाह्याजी स्वामी ने दीक्षा ग्रहण की, इसी क्रम में श्री थोभणजी, श्री मांडणजी आदि ४-५ लोग श्री इन्द्रचन्द्रजी स्वामी के प्रशिष्य बने। उस समय काठियावाड़ में ऐसी मान्यता थी कि बाहर से आये हुये 'परदेशी साधु' और कच्छ में ही विचरण करने वाले साधु ‘देशी साधु' या 'कच्छी साधु' के नाम से जाने जाते थे। कच्छ में देशी साधु के रूप में पहचाने जानेवाले मुनि श्री करसनजी स्वामी ने आठ कोटि दरियापुरी सम्प्रदाय के स्थापक पूज्य श्री धर्मसिंहजी स्वामी विरचित आवश्यकसूत्र (गुजराती) की प्रति पढ़ी और अपने श्रावकों के लिए सामायिक, पौषध आदि सम्बन्धी छ: कोटि की परम्परागत मान्यता छोड़कर आठ कोटि मान्य मान्यता का प्रतिपादन किया। इसी बीच श्री देवजी स्वामी और मुनि श्री अजरामर स्वामी के शिष्य श्री देवराजजी स्वामी गोंडलवाले जिनकी दीक्षा अपने पिता श्री नागजी भाई के साथ वि०सं० १८४१ फाल्गुन शुक्ला पंचमी के दिन हुई थी, का चातुर्मास वि०सं० १८५६ में मांडवी शहर में हुआ। यही पर छ: कोटि और आठ कोटि की चर्चा हुई और श्रावण कृष्णा नवमी बुधवार से अलग-अलग प्रतिक्रमण शुरु हो गये। तभी से.अर्थात् वि०सं० १८५६ से कच्छ आठ कोटि सम्प्रदाय अस्तित्व में आया। कालान्तर में कच्छ आठ कोटि भी दो भागों में विभाजित हो गया। स्थविर श्री इन्द्रजी स्वामी एवं पूज्य श्री देवजी स्वामी का परिवार 'आठ कोटि मोटी पक्ष' कहलाया और पूज्य श्री हंसराजजी स्वामी तथा उनके साधुवृन्द द्वारा तेरापन्थ समप्रदाय की सामाचारी और मान्यता कुछ अंश तक स्वीकार्य होने के कारण उनका परिवार आठ कोटि नानी पक्ष कहलाया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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