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________________ धर्मदासजी की परम्परा में उद्भूत गुजरात के सम्प्रदाय ३०१ ध्रांगध्रा सम्प्रदाय के पूज्य श्री वशरामजी स्वामी के शिष्य पूज्य श्री जशाजी स्वामी कुछ कारणवश बोटाद पधारे, इस समय से बोटाद सम्प्रदाय की स्थापना हुई । गोंडल सम्प्रदाय के पूज्य श्री डूंगरसी स्वामीजी की उपस्थिति में पूज्य गांगजी स्वामी एवम् उनके शिष्य पूज्य श्री जयचन्दजी स्वामी गोंडल सम्प्रदाय से अलग हुये तब से गोंडल संघाणी सम्प्रदाय शुरु हुआ। लीम्बड़ी सम्प्रदाय के पाँचवें पट्टधर पूज्य श्री अजरामरजी स्वामी के पश्चात् छठे पट्टधर पूज्य देवजी स्वामी हुये। उनके समय में पूज्य अजरामरजी स्वामी के शिष्य पूज्य देवराजजी स्वामी और उनके शिष्य पं० स्थविर श्री अविचलदासजी स्वामी के शिष्य श्री हेमचन्द्रजी स्वामी ने अपने विद्वान् शिष्य गोपालजी स्वामी को साथ लेकर 'लीम्बड़ी गोपाल संघवी सम्प्रदाय' की स्थापना की। पूज्य श्री अजरामरजी स्वामी के गुरुभाई श्री तलकसी स्वामी के शिष्य काका श्री करमसी स्वामी कुछ कारणों से अपने शिष्यों के साथ लींबड़ी से बढ़वाण पधारे। कुछ वर्षों पश्चात् उनके स्वर्गस्थ होने पर उनके शिष्य लीम्बड़ी (बड़े) सम्प्रदाय से अलग विचरण करने लगे। किन्तु बाद में वे लीम्बड़ी गोपाल सम्प्रदाय के साथ मिल गये और पूज्य श्री गोपालजी स्वामी की आज्ञा में रहे। लीम्बड़ी मोटा सम्प्रदाय ( अजरामर संघ) की पट्ट परम्परा आचार्य श्री पंचायणजी आपके जन्म के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है । वि० सं० १७८१ में आप गादीपति हुये और इसी वर्ष आचार्य पद पर भी विराजित हुये । वि०सं० १८१४ श्रावण सुदि में आपका स्वर्गवास हो गया। आपने संघ सुधार हेतु ३२ बोल (नियम) बनाये थे । कालान्तर में मुनि श्री अजरामरजी स्वामी ने दृढ़तापूर्वक उन नियमों को कायम रखा और संघ में सुधार करवाया। आचार्य श्री इच्छाजी स्वामी आपका जन्म सिद्धपुर में हुआ। आपके पिता का नाम श्री जीवराजजी संघवी और माता का नाम श्रीमती बालमबाई था । जाति से आप पोरवाल वणिक थे। वि० सं० १८१४ में आप गादीपति हुये और वि०सं० १८१५ महासदि नवमी को लीम्बड़ी में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये । वि०सं० १८३२ में आपका स्वर्गवास हो गया। आचार्य श्री हीराजी स्वामी आपके जन्म के विषय में कुछ स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं होता है। आप वि० सं० १८०४ में दीक्षित हुये और वि० सं० १८३२ में गादीपति बनें। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि वि०सं० १८३२ में गादीपति की घोषणा हुई होगी और वि०सं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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