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________________ धर्मदासजी की परम्परा में उद्भूत गुजरात के सम्प्रदाय २९९ वि०सं० १८१४ में आचार्य श्री पंचायणजी का स्वर्गवास हो गया। आपने संघ सुधार हेतु ३२ बोल (नियम) बनाये। मुनि श्री अजरामर स्वामी ने दृढ़तापूर्वक उन नियमों को कायम रखा और संघ में सुधार करवाया। दूसरे पट्टधर के रूप में वि० सं० १८१५ महासुदि नवमी के दिन लीम्बड़ी में मुनि श्री इच्छाजी आचार्य पद पर आसीन हुये । आपका जन्म सिद्धपुर में हुआ था। आपके पिताजी का नाम श्री जीवराज भाई संघवी और माताजी का नाम श्रीमती बालमबाई था। आचार्य श्री इच्छाजी का स्वर्गवास वि०सं० १८३२ में हुआ। तदुपरान्त तीसरे पट्टधर मुनि श्री हीराजी हुये। मुनि हीराजी पश्चात् चतुर्थ पट्टधर के रूप में मुनि श्री कानजी स्वामी ने संघ की बागडोर सम्भाली। आप वरवाला सम्प्रदाय के संस्थापक भी हुये। आपका जन्म वि० सं० १८०१ में बढ़वाणा ( भावसार ) में हुआ। वि०सं० १८१२ में आप दीक्षित हुये और वि० सं० १८४५ में लीम्बड़ी में आप संघ के गादीपति बने । वि० सं० १८५४ में सायला में आपका स्वर्गवास हुआ। वि०सं० १८४५ में एक साधु-साध्वी सम्मेलन हुआ जिसमें संघ को एक सूत्र में बाँधने हेतु मुनि श्री अजरामरजी ने आचार्य श्री पंचायणजी द्वारा बनाये गये ३२ नियमों को सम्मेलन में प्रस्तुत किया। किन्तु सम्मेलन में नियम सर्वसम्मति से पास नहीं हो सका, फलत: धीरे-धीरे संघ विघटित होकर सात भागों में विभक्त हो गया। वे सात विभाग इस प्रकार हैं १. गोंडल २. बरवाला ३. चुड़ा ४. ध्रांगधा ५. सायला ६. उदयपुर और ७. लिम्बडी सम्प्रदाय । गुजरात में स्थानकवासी संघ के नवीन सम्प्रदायों का जन्म आचार्य श्री मूलचन्दजी स्वामी के प्रथम शिष्य श्री गुलाबचन्दजी स्वामी के शिष्य मुनि श्री हीराजी स्वामी के गुरुभाई मुनि श्री नागजी स्वामी सायला पधारे और सायला सम्प्रदाय की स्थापना की। आचार्य श्री मूलचन्दजी स्वामी के द्वितीय शिष्य पंचायणजी ने वि० सं० १८०१ में लीम्बड़ी सम्प्रदाय की स्थापना की। पंचायणजी के शिष्य श्री रत्नसिंहजी स्वामी के शिष्य डूंगरसीजी वि०सं० १८४५ में गोंडल पधारे और गोंडल सम्प्रदाय अस्तित्व में आया। आचार्य श्री मूलचन्दजी के तृतीय शिष्य मुनि श्री वनाजी के शिष्य मुनि श्री कानजी (बड़े) कुछ साधुओं सहित वरवाला पधारे और वरवाला सम्प्रदाय की स्थापना की। आचार्य श्री मूलचन्दजी के चौथे शिष्य मुनि श्री बनारसी स्वामी के शिष्य मुनि श्री उदयसिंहजी तथा मुनि श्री जयसिंहजी ने चुड़ा सम्प्रदाय की स्थापना की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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