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________________ आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा मुनि श्री केवलऋषिजी आपका जन्म राजस्थान के मेड़ता नगर में हुआ। आपके पिता का नाम श्री कस्तूरचंदजी कांसटिया और माता का नाम श्रीमती रत्नकुक्षि था। मुनि श्री कुंवरऋषिजी जो मुनि श्री तिलोकऋषिजी के संसारपक्षीय ज्येष्ठ सहोदर थे, के मुखारविन्द से प्रवचन सुनकर आपके जीवन में अद्भूत परिवर्तन आया । संसार की असारता को लेकर आपके मन में उहापोह की स्थिति बनी हुई थी । उतार चढ़ाव की इसी मन:स्थिति में आपका पाणिग्रहण संस्कार भी हुआ और श्री अमोलकचंदजी और श्री अमीचन्दजी नामक दो पुत्ररत्नों की प्राप्ति भी हुई। कुछ समयोपरान्त आपकी पत्नी का देहावसान हो गया । दूसरे विवाह के लिए आपकी सगाई की रस्म भी हुई, किन्तु होशंगाबाद में विराजित मुनि श्री उदयसागरजी से प्रतिबोध पाकर आपने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत अंगीकार कर लिया। तदुपरान्त आपने वि० सं० १९४३ चैत्र शुक्ला पंचमी को मुनि श्री पूनमऋषिजी से दीक्षा अंगीकार की और मुनि श्री खूबाऋषिजी के शिष्य कहलाये। आप एक उग्रतपस्वी के रूप में जाने जाते थे। आपने कहाँ पर कितनी तपस्यायें की इसका विवरण निम्न प्रकार हैखाचरौंद चौमासे में - ३० दिन की, प्रतापगढ़ में- ६० दिन की, बगड़ी में - ९० दिन की, ८९ दिन की, नीमच में १०१ दिन की इस तपस्या में ५४ खंघ के प्रत्याख्यान हुए। भावनगर में १११ दिन, आस्टा में ५१ दिन की, जम्मू में ३१ दिन की, लश्कर में ११० दिन की, मुम्बई में ८४ दिन की, हैदराबाद में ११ दिन की । २६३ केवल छाछ के आधार पर आपने जो तपस्यायें की, वे इस प्रकार हैं१,२,३,४,५,६,७,८,९,१०,११,१२,१३, १४, १५, १६, १७, १८, १९,२०,२१,३१,३३,४१, ५१, ६१,६३,७१, ८१, ८४,९१,१०१,१११ और १२१ । इन उपवासों के अतिरिक्त आपने छह महीने तक एकान्तर उपवास किया। मालवा, मेवाड़ मारवाड़, गुजरात, पंजाब, ढुंढार, काठियावाड़ झालावाड़ दक्षिण, निजाम स्टेट, बम्बई, तैलंगाना आदि आपके विहार क्षेत्र रहे हैं। वि०सं० १९६३ के चैत्र मास में आप चातुर्मास हेतु हैदराबाद पधारे जहाँ लगातार आपके आठ चातुर्मास हुए। वि० सं० १९७१, चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को आपको रक्तातिसार हुआ, दिन व दिन शारीरिक क्षीणता बढ़ती गयी और श्रावण कृष्णा द्वादशी के दिन संथारापूर्वक आपका स्वर्गवास हो गया। इस प्रकार २८ वर्ष आपने संयमपर्याय का पालन किया। अमोलकऋषिजी की शिष्य परम्परा Jain Education International मुनि श्री राजऋषिजी आपके माता-पिता का नाम व जन्म-तिथि, दीक्षा तिथि आदि का उल्लेख नहीं मिलता है। आपके विषय में इतनी जानकारी उपलब्ध होती है कि आपका जन्म नागौर के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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