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________________ २५८ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास अस्वस्थता के कारण आपका प्रतापगढ़ में स्थिरवास हो गया। उस समय आपकी सेवा में मुनि श्री सुखेलकऋषिजी और मुनि श्री माणकऋषिजी विराजमान थे। वि०सं० १९८९ में ऋषि सम्प्रदाय के साधु-साध्वियों का इन्दौर में एक सम्मेलन हुआ जिसमें सर्वसम्मति से आगमोद्धारक पं० मुनि श्री अमोलकऋषिजी को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। तत्पश्चात् आचार्य श्री अमोलक ऋषिजी की आज्ञा से पण्डितरत्न मुनि श्री आनन्दऋषिजी और मुनि श्री उत्तमऋषिजी एवं मुनि श्री दौलतऋषिजी आपकी सेवा में प्रतापगढ़ पधारे, किन्तु मुनिद्धय के पहुँचने के दो-तीन दिन पश्चात् ही वि०सं० १९८९ आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को आपका स्वर्गवास हो गया। अमीऋषिजी की शिष्य परम्परा मुनि श्री दयाऋषिजी आपका जन्म मालवा के दलोट ग्राम में हुआ था। आपके माता-पिता का नाम श्रीमती प्याराबाई एवं श्री भेरुलालजी था। आप पण्डितरत्न श्री अमीऋषि के संसारपक्षीय भाई थे। दस वर्ष की आयु में आपने मुनि श्री अमोऋषिजी के सानिध्य में आहती दीक्षा ग्रहण की। दीक्षोपरान्त आपने अपने गुरु के सानिध्य में शास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ किया। बाल्यकाल से ही आप विलक्षण प्रतिभा के धनी थे और १०० श्लोक आप अनायास ही कण्ठस्थ कर लेते थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि आपने 'दशवैकालिक' १५ दिन में, 'आचारांग' २१ दिन में, 'सूत्रकृतांग' २५ दिन में, 'बृहत्कल्प' ९ दिन में, 'नन्दी' २२ दिन में, 'उत्तराध्ययन' ४५ दिन में, 'अनुत्तरौपपातिक' ३ दिन में और 'सखविपाक' १ दिन में कंठस्थ कर लिया था। आपको संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। हमेशा किसी न किसी शास्त्र का स्वाध्याय करना, ग्रन्थों का अध्ययन करना, काव्य-रचना, लेखन कार्य आदि के प्रति आपका विशेष लगाव था। मालवा, मेवाड़, बांगड़ आदि प्रान्त आपके विहार क्षेत्र रहे हैं। वि० सं० १९६० में आपका चातुर्मास निम्बाहेड़ा में था, किन्तु प्लेग फैल जाने के कारण तथा श्रीसंघ के विशेष आग्रह पर आपको बड़ी सादड़ी जाना पड़ा। वहीं अचानक आपकी तबीयत खराब हो गयी और भूरक्या गाँव में आपका स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री रामऋषिजी आपका जन्म मालवा के पंचेड़ निवासी श्री गुलाबचन्दजी गूगलिया के यहाँ हुआ! जन्म तिथि की जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। आपका सांसारिक अवस्था का नाम श्री रामलाल था । आप विवाहित थे। आपको एक पुत्र था जिसकी शादी के एक महीने पश्चात् ही उसकी पत्नी का देहान्त हो गया। फलत: आपको संसार से विरक्ति हो गयी। सौभाग्यवश उन्हीं दिनों आपको मुनि श्री अमीऋषिजी का सान्निध्य प्राप्त हुआ। उन्हीं के सान्निध्य में वि०सं० १९७४ वैशाख शुक्ला पंचमी के दिन आप दीक्षित हुए। ११ वर्ष संयमपर्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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