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________________ आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा २५७. व काव्य रचना में आपकी विशेष रुचि थी । २८ वर्ष तक संयमपालन कर वि० सं० १९७३ में आप स्वर्गस्थ हुये। आपके तीन शिष्य थे - १. श्री स्वरूपऋषि जी, २. श्री सद्दाऋषिजी और ३. श्री दौलतऋषिजी (छोटे) । मुनि श्री कालूऋषिजी आपका जन्म मालवा के प्रतापगढ़ जिला अन्तर्गत नागधी ग्राम के निवासी श्री पूरणमल्लजी के यहाँ वि०सं० १९३७ श्रावण शुक्ला प्रतिपदा को हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती प्यारीबाई था। आप जाति से क्षत्रिय थे । २१ वर्ष की उम्र में आपने मुनि श्री हरखाऋषिजी के प्रवचन से प्रभावित होकर वि० सं० १९५८ श्रावण शुक्ला पंचमी को प्रतापगढ़ में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने के पश्चात् आप संस्कृत, प्राकृत, उर्दू, फारसी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं का तथा धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया । आपके निर्देशन में ५१ गायों को अभय प्रदान किया गया। मालवा, मेवाड़, मारवाड़, दिल्ली, कोटा, गुजरात, काठियावाड़, दक्षिण महाराष्ट्र, निजाम स्टेट, खानदेश, मध्यप्रदेश, बरार आदि प्रान्त आपके विचरण स्थल थे। आपने कुल चालीस चातुर्मास सम्पन्न किये जिनकी सूची निम्नलिखित हैं प्रतापगढ़- ५, जालना- ३, सुखेड़ा- १, राहुपिंपल गाँव - १, काहनोर - १, बोरी - २, सुजालपुर- १, कान्हूर पठार- १, उज्जैन - २, सोनई - १, खाचरौद - १, करमाला - १, रतलाम - २, औरंगाबाद- १, थांदला - १, बड़नेरा - १, भोपाल- १, वणी (बरार)- १, पिपलौदा - ५, राजनांदगाँव - १, दिल्ली (चाँदनी चौक ) - २, रायपुर ( म०प्र०) - १, खम्भात - १, कवर्धा - २ और राजकोट - १ । मुनि श्री रामऋषिजी, मुनि श्री मिश्रीऋषिजी और श्री जसवंतऋषिजी आपकी सेवा में संलग्न रहते थे। आपकी स्वर्गवास तिथि उपलब्ध नहीं होती है। मुनि श्री चम्पकऋषिजी आपका जन्म कब और कहाँ हुआ, आपके माता-पिता का नाम क्या था? इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। हाँ! इतना ज्ञात होता है कि आप काठियावाड़ के निवासी थे। वि० सं० १९९१ में आपने मुनि श्री कालूऋषिजी से दीक्षा ग्रहण की। आप मासखमण के साथ साथ ४०-४५ दिन तक की तपश्चर्या भी करते थे । जीवनपर्यन्त आप अपने गुरु की सेवा में रहे। वि० सं० २००० में कवर्धा में आपका स्वर्गवास हो गया । मुनि श्री दौलतऋषिजी (छोटे) आपका जन्म कब और कहाँ हुआ, आपके माता-पिता का नाम क्या था ? आदि जानकारियाँ उपलब्ध नहीं हैं । वि० सं० १९५९ में आपने सोहागपुरा प्रतापगढ़ ( मालवा ) मुनि श्री भैरवऋषिजी से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षोपरान्त आपने अपने गुरु और मुनि श्री अमीऋषिजी से शास्त्रों का अध्ययन किया। स्वभाव से आप सरल और विनम्र थे। शारीरिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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