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________________ २५६ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास मुनि श्री सुखाऋषिजी आपका जन्म मारवाड़ के गुड़मोगरा नामक ग्राम के निवासी श्री स्वरूपचंदजी जाट के घर वि०सं० १९२३ श्रावण पूर्णिमा को हुआ। शासनप्रभावक मुनि श्री हरखाऋषिजी के शिष्यत्व में आपने वि०सं० १९३१ में श्रमण दीक्षा अंगीकार की। बाल्यकाल से ही आप विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। गहन से गहन तत्त्व को अनायास ही हृदयंगम कर लेना आपकी विशेषता थी। आप मधुर व्याख्यानी के रूप में जाने जाते थे। वि०सं० १९४९ में आपका चातुर्मास चिंचपोकली (बम्बई) में था, जहाँ आपके उपदेश से प्रभावित होकर श्री देवजी भाई दीक्षित होने की भावना लेकर आपके साथ हो लिये। इसी वर्ष मुनि श्री चातुर्मास पूर्ण कर सूरत पधारे जहाँ चैत्र कृष्णा तृतीया के दिन बड़े समारोह के साथ श्री देवजी भाई की दीक्षा सम्पन्न हुई। श्री देवजी भाई देवऋषिजी के नाम से जाने जाने लगे। वि० सं० १९३१ से वि० सं० १९४८ तक के चातुर्मास की जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है । आपके शेष चातुर्मास इस प्रकार हैं - वि०सं० १०४९ में बम्बई, वि०सं० १९५० में धुलिया, वि० सं० १९५१ में भोपाल, वि०सं० १९५२ में मन्दसौर, वि०सं० १९५३ में इन्दौर, वि०सं० १९५४ में भोपाल, वि० सं० १९५५ में इन्दौर, वि०सं० १९५६ में धार, वि०सं० १९५७ में भोपाल। वि०सं० १९५६ का चातुर्मास पूर्ण कर आप जब इच्छावर पधारे तब आपकी शारीरिक स्थिति नाजुक हो गयी और अस्वस्थ रहने लगे। आपका वि० सं० १९५७ का चौमासा भोपाल था, भोपाल चौमासा पूर्णकर आप इच्छावर पधारे किन्तु स्वास्थ्य ने आपका साथ नहीं दिया । अत: आपके विनीत शिष्य श्री देवऋषिजी ने इच्छावर से भोपाल लगभग ४८ किमी० की दूरी आपको अपने कंधे पर बैठाकर तय की। किन्तु अपनी शारीरिक स्थिति देखते हुए आपने संथारा ग्रहण कर लिया। ३५ वर्ष की आयु में वि०सं० १९५८ श्रावण पूर्णिमा को आपका स्वर्गवास हो गया। यह कैसा संयोग था कि श्रावण पूर्णिमा के दिन ही आपका जन्म हुआ था और श्रावण पूर्णिमा के दिन ही आपका स्वर्गवास हुआ। मालवा, गुजरात, बम्बई, खानदेश आदि आपके विहार क्षेत्र रहे। आपके सात शिष्य हुए- श्री सूरजऋषिजी, श्री प्रेमऋषिजी, पण्डितरत्न श्री अमीऋषिजी, श्री देवजीऋषिजी, श्री मिश्रीऋषिजी, श्री पासूऋषिजी और श्री मगनऋषिजी । मुनि श्री भैरवऋषिजी मालवा प्रान्त के दलोट गाँव में आपका जन्म हुआ। वि०सं० १९४५ चैत्र शुक्ला पंचमी को आप मुनि श्री सुखाऋषिजी से दीक्षा ग्रहण की और मुनि श्री हरखाऋषिजी की निश्रा में शिष्य बने। आपने मालवा और वागड़ प्रान्त के छोटे-छोटे गाँवों में जाकर जिज्ञासु जनता को प्रतिबोध दिया और शुद्ध धर्म का स्वरूप समझाया। तप, पठन-पाठन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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