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________________ आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा २५५ १९४२ में भोपाल में आपने अपने सुयोग्य शिष्य मुनि श्री केवलऋषिजी को मुनि श्री खूबाऋषिजी की नेश्राय में कर दिया। विभिन्न स्थलों को स्पर्श करते हुए आप मुनि श्री विजयऋषिजी की सेवा में शाजापुर पहुँचे जहाँ अकस्मात आपका स्वर्गवास होगया । वि०सं० १९३६ में आप द्वारा लिखित मूर्तिपूजा विषयक प्रश्नोत्तर तथा वि० सं० १९४२ में लिखित एक स्तवन प्राप्त होता है। मुनि श्री खूबाऋषिजी आपका जन्म कब और कहाँ हुआ, आपके माता-पिता कौन थे आदि की जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। आप मुनि श्री धनजीऋषि के यहाँ दीक्षित हुए, किन्तु दीक्षा कब हुई इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। मालवा आपका मुख्य विहार क्षेत्र रहा है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि भोपाल में ऋषि सम्प्रदाय के सन्तों ने अनेक कष्ट सहन करके स्थानकवासी जैनधर्म के बीज बोये और उन्हें विकसित किया, उन सन्तों में से आप भी एक थे । वि० सं० १९४३ में आपका चातुर्मास भोपाल में तथा वि०सं० १९४६ का चातुर्मास शुजालपुर में था। शुजालपुर चौमासे में ही आपकी तबीयत खराब हो गयी और आपने चतुर्विध संघ को साक्षी मानकर संथारा ग्रहण कर लिया और भाद्र शुक्ला द्वितीया को आपका स्वर्गवास हो गया। I आपके आठ शिष्यों के नाम उपलब्ध होते हैं- मुनि श्री चेनाऋषिजी, मुनि श्री लालऋषिजी, मुनि श्री अमीचन्दऋषिजी, मुनि श्री नाथाऋषिजी, मुनि श्री मानऋषिजी, मुनि श्री केवलऋषिजी, मुनि श्री खेचरऋषिजी, मुनि श्री लाजमऋषिजी । मुनि श्री हरखाऋषिजी आपका जन्म मालवा के सुखेड़ा ग्राम के ओसवाल परिवार में हुआ था। मुनि श्री पृथ्वीऋषिजी से दीक्षा ग्रहण करके श्री सोमऋषिजी की नेश्राय में शिष्य हुए। आप स्वभाव से सरल, विनम्र और सहृदयी थे। आपने अपनी मधुर वाणी से बहुतों को प्रतिबोध देकर मांस-मदिरा, शिकार सेवन आदि हिंसा से बचाया। वि० सं० १९५१ में भोपाल, वि०सं० १९५४ में पुन: भोपाल और १९५८ में पिपलोदा में आपने अपना चौमासा किया। आपके पाँच शिष्य थे- श्री ब्रजलालऋषिजी, पंडितरत्न श्री सुखाऋषिजी, श्री हीराऋषिजी, श्री भैरवऋषिजी और श्री कालूऋषिजी । मुनि श्री हीराऋषिजी आपके दीक्षा पूर्व के जीवन के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। मुनि श्री हरखाऋषिजी के सान्निध्य में आप दीक्षित हुए। वि० सं० १९४९ में पंडितरत्न श्री सुखाऋषिजी और मुनि श्री अमीऋषिजी के साथ आपने बम्बई का चातुर्मास सम्पन्न किया। वि० सं० १९५० का चातुर्मास आपने पंडितरत्न श्री सुखाऋषिजी के साथ धुलिया में किया। वि० सं० १९५१ का चातुर्मास भोपाल में गुरुवर्य स्थविर मुनि श्री हरखाऋषिजी के साथ किया । मालवा, महाराष्ट्र, गुजरात आदि प्रान्त आपके विचरण स्थल रहे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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