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________________ २५४ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास मुनि श्री दौलतऋषिजी आपका जन्म वि० सं० १९२० आश्विन कृष्णा चतुर्दशी को जावरा में हुआ। वि०सं० १९४९ मार्गशीर्ष शुक्ला त्रयोदशी के दिन भोपाल में मुनि श्री लालऋषिजी के सानिध्य में आप दीक्षित हुये। दीक्षोपरान्त आपने आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' और 'सूर्यप्रज्ञप्ति' के आप अच्छे ज्ञाता थे। ज्योतिषशास्त्र में आपकी अच्छी पकड़ थी। मालवा आपका मुख्य विहार क्षेत्र रहा है। श्रावण कृष्णा एकादशी दिन गुरुवार के दिन आपका स्वर्गवास हो गया। स्वर्गवास का वर्ष ज्ञात नहीं है। आपके २० शिष्य हुए जिनमें मुनि श्री मोहनऋषिजी और मुनि श्री विनयऋषिजी प्रमुख शिष्य हैं। मुनि श्री कुंवरऋषिजी आपका जन्म रतलाम में हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती नानूबाई तथा पिता का नाम श्री दलीचन्दजी सराणा था। वि०सं० १९१४ माघ कृष्णा प्रतिपदा को आप अपनी माँ, बहन और भाई के साथ मुनि श्री अयवन्ताऋषिजी के शिष्यत्व में दीक्षित हुये । अपने गुरुवर्य से शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। आपने अपने संयमजीवन में एक चादर और एक ही चोलपट्टा का सेवन किया। मालवा, वांगड़ आदि आपका विहार क्षेत्र रहा और मालवा में ही आपका स्वर्गवास हुआ । आपके सदुपदेश से कई अजैन बन्धुओं ने भी जैन दीक्षा अंगीकार की थी। आपकी जन्म-तिथि तथा स्वर्गवास-तिथि उपलब्ध नहीं होती है। मुनि श्री विजयऋषिजी आपका जन्म कब और कहाँ हुआ तथा आपके माता-पिता का नाम क्या था? आदि की जानकारी नहीं मिलती है। जो जानकारी उपलब्ध होती है उसके आधार पर वि०सं० १९१२ में आप मुनि श्री अयवन्ताऋषिजी के कर-कमलों से दीक्षित हुये थे। ऐसी जनश्रुति है कि दीक्षोपरान्त आप प्रतिदिन 'दशवैकालिक' के अध्यायों का छ: बार तथा 'सूत्रकृतांग' के छ: अध्यायों का २५ बार अध्ययन किया करते थे। आपकी तपश्चर्या भी आनोखी थी। आप निरन्तर एकान्तर तप तथा प्रतिदिन ४०० लोगस्स का ध्यान किया करते थे। वि०सं० १९२२ में मुनि श्री अयवन्ताऋषिजी के स्वर्गस्थ हो जाने पर आप मुनि श्री तिलोकऋषि के साथ विचरण करने लगे थे। मालवा आपका प्रमुख विहार क्षेत्र रहा है। वृद्धावस्था में आपका स्थिरवास शाजापुर में था। वि०सं० १९४४ के चातुर्मास में तपस्वी श्री केवलऋषिजी आपकी सेवा में उपस्थित थे। आपके स्वर्गवास की स्पष्ट तिथि तो उपलब्ध नहीं होती, किन्तु आपका स्वर्गवास वि० सं १९४४ के आस-पास हुआ होगा- ऐसा कहा जा सकता है। मुनि श्री पूनमऋषिजी आपके विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। आप मुनि श्री. विजयऋषिजी के शिष्य थे और संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के जानकार थे। वि०सं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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