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________________ २५३ आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा दो पक्ष बनने स्वाभाविक थे। ऐसी जनश्रुति है कि धनजीऋषिजी के समय में सन्तों की संख्या १२५ और सतियों की संख्या १५० थी। आपका व्याख्यान बड़ा रोचक और प्रभावशाली होता था। मालवा, मन्दसौर, प्रतापगढ़, रतलाम, जावरा, भोपाल, शुजालपुर, शाजापुर, उज्जैन, इन्दौर आदि क्षेत्रों में आपने जिनशासन की ध्वजा लहरायी। आपके जीवन से सम्बन्धित तिथियाँ अनुपलब्ध हैं। मुनि श्री अयवंताऋषिजी और उनकी परम्परा आपका जन्म कब और कहाँ हुआ, आपके माता-पिता कौन थे? आदि की जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। मुनि श्री धनजीऋषिजी की निश्रा में आपने आहती दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा-तिथि की जानकारी नहीं मिलती है। दीक्षोपरान्त आपने शास्त्रों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। वि०सं० १९१४ में जब आपका चातुर्मास रतलाम में था तब आपकी निश्रा में दो दीक्षायें हुईं- मुनि श्री कुंवरऋषिजी और मुनि श्री तिलोकऋषिजी। आपके शेष चातुर्मास इस प्रकार हैं- वि०सं० १९१५ में जावरा, १९१६ में शुजालपुर १९१७ में प्रतापगढ़, १९१८ में शुजालपुर, १९१९ में भोपाल, १९२० में बरडावरा, १९२१ में शुजालपुर। शुजालपुर में चातुर्मास करने के उपरान्त आप सारंगपुर, शाजापुर, देवास, इन्दौर, देवास, नेवली, पीपरिया, मगरदा, आष्टा, सीहोर आदि क्षेत्रों का स्पर्श करते हुये भोपाल पधारे जहाँ आपने फाल्गुनी चातुर्मास किया। तत्पश्चात् आप भैंसरोज पधारे जहाँ आपने समाधिमरण स्वीकार कर लिया। वि० सं० १९२२ आषाढ़ शुक्ला नवमी के दिन आपका स्वर्गवास हो गया। आपके सात शिष्य हुये- कविकुल भूषण श्री तिलोकऋषिजी, पं० श्री लालऋषिजी, उग्रतपस्वी श्री कुंवरऋषिजी, श्री विजय ऋषिजी, श्री अभयऋषिजी, श्री चुनीऋषिजी और श्री बालऋषिजी। मुनि श्री लालऋषिजी. आपका जन्म कब और कहाँ हुआ, आपके माता-पिता का नाम क्या था? आदि विषयों की जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। हाँ! इतना ज्ञात होता है कि आप मुनि श्री अयवन्ताऋषिजी के शिष्य थे और उन्हीं के कर-कमलों द्वारा आपकी दीक्षा हुई थी। साथ ही यह भी उल्लेख मिलता है कि आप वि० सं० १९४९ में भोपाल पधारे थे। आपके दो शिष्य थे- मुनि श्री मोतीऋषिजी और मुनि श्री दौलतऋषिजी। मुनि श्री मोतीऋषिजी. ___ आपके विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है । हाँ! इतनी जानकारी उपलब्ध होती है कि आपने मुनि श्री लालऋषिजी के मुखारविन्द से आर्हती दीक्षा अंगीकार की थी। मालवा, मेवाड़ आदि प्रान्त आपके विहार क्षेत्र रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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