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________________ २४४ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास . 'सम्यक्त्व निर्णय' १०. 'श्री भावनासार' ११. 'प्रश्नोत्तरमाला' १२. 'समाज स्थिति दिग्दर्शन' १३. 'कषाय कुटुम्ब छह ढालिया' १४. 'जिनसुन्दरी चरित' १५. 'श्रीमती सती चरित' १६. 'अभयकुमारजी की नवरंगी लावणी' १७. 'भरत-बाहुबली चौढ़ालिया' १८. 'अयवंताकुमारमुनि छह ढालिया' १९. 'विविध बावनी' २०. 'शिक्षा बावनी' २१. 'सुबोध शतक' २२. 'मुनिराजों की ८४ उपमाएँ २३. 'अम्बड संन्यासी चौढालिया' २४. सत्यघोष चरित २५. 'कीर्तिध्वज राजा चौढालिया' २६. 'अरणक चरित' २७. 'राजा मेघरथ चरित २८. 'धारदेव चरित।' आपके चित्रकाव्य निम्नलिखित हैं - १. 'खडगबन्ध' २. 'कपाटबन्ध' ३. 'कदलीबन्ध ४. मेरुबन्ध ५. 'कमलबन्ध' ६. 'चमरबन्ध' ७. 'एकाक्षर त्रिपदीबन्ध' ८. 'चटाईबन्ध' ९. 'गोमूत्रिकाबन्ध' १०. 'छत्रबन्ध' ११. 'वृक्षाकार बन्ध' १२. 'धनुबंध' १३. 'नागपाशबन्ध' १४. 'कटारबन्ध' १५. 'चौपटबन्ध' १६. 'चौकीबन्ध' १७. 'स्वस्तिकबन्ध'। इनमें से कुछ रचनाएं श्री अमोल जैन ज्ञानालय, धुलिया से प्रकाशित हो चुकी हैं। आचार्य श्री अमोलकऋषिजी मालवा ऋषि परम्परा में पूज्य अमीऋषिजी के पश्चात् मुनि श्री अमोलकऋषिजी आचार्य पट्ट पर विराजित हुए। आपका जन्म मेड़ता के कांसटिया गोत्रीय ओसवाल श्री केवलचन्दजी, जो मन्दिरमार्गी आम्नाय के श्रावक थे, के यहाँ वि०सं० १९३४ में हुआ। आपकी माताजी का नाम श्रीमती हुलासाबाई था। आपके छोटे भाई का नाम अमीचन्द था। आपके पिताजी मेड़ता छोड़कर भोपाल आ कर रहने लगे थे, ऐसे मूलत: आप मेड़ता के ही निवासी थे । बाल्यकाल में ही आपकी माता का देहावसान हो गया था। आपके पिताजी भी मुनि श्री पूनमऋषिजी के सानिध्य में दीक्षा ग्रहण कर मुनि श्री सुखाऋषिजी की निश्रा में शिष्य हो गये थे। मुनि श्री रत्नऋषि और केवलऋषिजी जब विहार करते हुए इच्छावर पधारे तब आप (श्री अमोलकऋषिजी) खेड़ी ग्राम से अपने मामाजी के मुनिम के साथ अपने सांसारिक पिता मुनि श्री केवलऋषिजी के दर्शनार्थ आये। अपने पिताजी को साधुवेष में देखकर आपने भी दीक्षा ग्रहण करने की भावना व्यक्त की। दोनों मुनिराजों ने आपकी भावना का सम्मान करते हुए दीक्षा की स्वीकृति दे दी। वि०सं० १९४४ फाल्गुन कृष्णा द्वितीया दिन गुरुवार को आपकी दीक्षा हुई । इस प्रकार बालक अमोलक मुनि श्री अमोलकऋषि हो गये । दीक्षित होने के पश्चात् आप तीन वर्ष तक मुनि श्री केवलऋषिजी के साथ तथा दो वर्ष तक मुनि श्री भैरवऋषिजी के साथ विचरते रहे । वि०सं० १९४८ में पन्नालालजी की दीक्षा हुई। तत्पश्चात् आप मुनि श्री रत्नऋषिजी की सेवा में उपस्थित हो गये। मुनि श्री रत्नऋषिजी के सानिध्य में आपने आगमों का अध्ययन किया। वि०सं० १९५६ में आपके सानिध्य में मोतीऋषिजी की दीक्षा हुई। वि०सं० १९६१ में चातुर्मास हेतु बम्बई पधारे। हैदराबाद श्रीसंघ के विशेष आग्रह पर आपने वि०सं० १९६२ का चातुर्मास इतगपुरी में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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