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________________ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास में आप जैन सन्त तपस्वी श्री शान्तिस्वरूपजी के सम्पर्क में आये, किन्तु जैनधर्म के प्रति आप में उतनी रुचि नहीं थी जितनी की वैदिक धर्म में। लेकिन समय की बलवत्ता के समक्ष बड़े- बड़े धीर पुरुष धाराशायी हुये हैं। ऐसा ही कुछ आपके साथ भी घटित हुआ। आपके मन में 'नमस्कार महामंत्र' के प्रति परीक्षक भावना जागृत हुई और आपने मन में किसी कार्य पूर्ति हेतु अभिग्रह धारण किया कि छ: महीने के भीतर यदि यह कार्य पूर्ण हो जाता है तो इस महामंत्र के साथ-साथ मैं जैनधर्म को भी स्वीकार कर लूंगा। ठीक छ: महीने के भीतर आपका अभिग्रह पूर्ण हुआ और आप १८ फरवरी १९८९ को तपस्वीरत्न गुरुदेव श्री सुमतिप्रकाशजी की निश्रा में उपाध्याय श्री डॉ. विशालमनिजी के हाथों दीक्षित हये और श्री आशीषमुनिजी के शिष्य कहलाये। आप एक सफल और प्रखर वक्ता हैं। दोहा, छन्द, गीतिका, यात्रा-वृतांत, संस्मरण आदि विषयों पर आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रकाशित पुस्तकों के नाम हैं- 'स्नेह के स्वर' (पाँच भागों में), 'कर्मभूमि से जन्मभूमि' (यात्रा- वृतांत), 'आत्मानुसंधान' (चिन्तन), 'बूंद-बूंद सागर' आदि। आपकी प्रेरणा से ‘मानव मिलन' नामक एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था कार्य कर रही है जिसका उद्देश्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार, अन्नदान, चिकित्सा आदि है। आप एकमात्र ऐसे सन्त हैं जिन्होंने अपनी मातृभूमि नेपाल के पाँच राज्यों में जैन मुनि के रूप में पदयात्रा की है। इसके अतिरिक्त कश्मीर से कन्याकुमारी तथा कोलकाता से मुम्बई तक की पदयात्रायें भी आपने की हैं। आपके एक शिष्य हैं- श्री पुनीतमुनिजी। आचार्य श्री काशीरामजी की शिष्य परम्परा आचार्य श्री काशीरामजी के सात शिष्यों में से मात्र प्रवर्तक श्री शुक्लचन्द्रजी का ही जीवन परिचय उपलब्ध हो सका है। प्रवर्तक मुनि श्री शुक्लचन्द्रजी आपका जन्म वि० सं० १९५१ भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को हरियाणा के रेवाड़ी सन्निकट दडौली फतेहपुरी ग्राम में हआ। शंकर नाम रखा गया। आपकी माता का नाम श्रीमती मेहताब कौर तथा पिता का नाम श्री बलदेवराजजी था। १३ वर्ष की अवस्था में आपके पिता का स्वर्गवास हो गया। वि०सं० १९७३ आषाढ़ पूर्णिमा को आचार्य श्री सोहनलालजी के सानिध्य में आपने भागवती दीक्षा ग्रहण की और युवाचार्य श्री काशीराम जी के शिष्य कहलाये। तत्पश्चात् आचार्य श्री काशीरामजी के श्री चरणों रहकर सुदीर्घ काल तक शास्त्रों का गहन अध्ययन किया, आगम वाचनाएँ लीं, गुरुमुख परम्परा से ज्ञान ग्रहण किया । आचार्य श्री सोहनलालजी आपको ‘पण्डित' नाम से सम्बोधित करते थे। वि०सं० १९८० से लेकर वि०सं० २००२ तक धर्म प्रचार हेतु आप पंजाब, पूर्वी-पश्चिमी दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, दक्षिण गुर्जर आदि प्रदेशो में विचरण करते रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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