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________________ २२८ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास वर्ष संयमपर्याय का पालनकर वि०सं० २०३६ तदनुसार १८ फरवरी १९७९ को रात्रि १० बजकर १० मिनट पर आपने समाधिपूर्वक इस लौकिक संसार को त्यागकर परलोक के लिए महाप्रयाण किया। प्रवर्तक मुनि श्री शान्तिस्वरूपजी आपका जन्म वि०सं० १९७५ पौष सुदि नवमी को मेरठ जिलान्तर्गत अमीनगर सराय में हुआ। आपके पिता का नाम श्री खूबसिंहजी (दादा गुरुदेव श्री खूबचन्दजी) व माता का नाम श्रीमती चुनिया देवी था। आपके शुभ कर्मोदय से सात वर्ष की आयु में ही आपको पंजाब श्रीसंघ के आचार्य श्री सोहनलालजी के दर्शन का सौभाग्य मिला। जिस समय आप आचार्य श्री सोहनलालजी के सानिध्य में आये उस समय तक आपके पिता श्री खूबसिंह और भाई श्री फूलचंदजी ने आर्हती दीक्षा ग्रहण कर ली थी। वि०सं० १९९२ मार्गशीर्ष सुदि एकादशी को आपने भी परमश्रद्धेय तपस्वीरत्न श्री निहालचन्दजी के श्री चरणों में भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली। आप मानव एकता के प्रतीक माने जाते हैं। सन् १९४८ में भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय में बिखरे हुये शरणार्थी जैन भाई आपके पास आये तब आपने श्रीसंघ को संगठित कर उन्हें एक नगर में बसाने का कार्य किया। आपके प्रयत्न से मेरठ में एक 'जैन नगर' नामक बस्ती है जिसमें जैन धर्मशाला, परम तपस्वी गुरु श्री निहालचन्द पार्क, दो जैन स्थानक, दो औषधालय, श्री जैन वाचनालय तथा श्री महावीर शिक्षा सदन इण्टर कालेज कार्यरत हैं। सन् १९८२ में आप श्रमण संघ के प्रवर्तक बनाये गये। आप प्रात: ३ बजे से ९.३० तक ध्यान में लीन रहते हैं। १० बजे से ११.३० बजे तक श्रद्धालुओं के प्रश्नों व जिज्ञासाओं का समाधान करते हैं। प्रात: ११.३० बजे से ३ बजे तक मौन, जप व ध्यान करते हैं। सायं ३ से ५ बजे तक पुनः जिज्ञासुओं के प्रश्नों का समाधान करते हैं। इसके अनन्तर आगम अभ्यासियों के लिए आगम वाचना का समय है। रात्रि ९ से १० बजे तक ध्यान व स्वाध्याय का कार्य चलता है। तपस्वीरत्न श्री सुमतिप्रकाशजी आपके प्रमुख शिष्य हैं। तपस्वीरत्न मुनि श्री सुमतिप्रकाशजी आपका जन्म वि०सं० १९९४ आश्विन शुक्ला सप्तमी को हिमाचल प्रदेश के चाँव गाँव में हुआ। आपके पिता श्री ख्यालीसिंहजी (सेना के प्रभावशाली ऑफिसर) तथा माता का नाम श्रीमती जानकीदेवी था। वि०सं० २०१६ वैशाख शुक्ला पूर्णिमा को घोरतपस्वी स्वामी श्री निहालचन्दजी, संघ संरक्षक योगीराज श्री फूलचंदजी एवं उत्तर भारतीय अध्यात्मयोगी स्वामी श्री शान्तिस्वरूपजी के सानिध्य में आपने आहती दीक्षा ग्रहण की और स्वामी श्री शान्तिस्वरूपजी के शिष्य कहलाये। ७ जुलाई १९७१ से आप निरन्तर एकांतर आयम्बिल तप की आराधना में संलग्न हैं। ४०, २०, ५३, ६३, ७०, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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