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________________ आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा २२७ मुनि श्री कस्तूरचन्दजी आपका जन्म स्यालकोट और जम्म के मध्य काँपुर पलोड़ा में हआ। आप जाति से राजपूत सिक्ख थे। बाल्यकाल से ही आपका सम्पर्क जैन परिवार से होने के कारण आप जैन संत-सतियों के सम्पर्क में रहे, फलतः वि०सं० १९७२ में बंगा में गुरुवर्य श्री गैंडेयरायजी के सान्निध्य में आपने आर्हती दीक्षा ग्रहण की। आप अपने संयम के प्रति अत्यन्त कठोर थे। आपका स्वर्गवास उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुआ। स्वर्गवास की तिथि ज्ञात नहीं है। तपस्वी मुनि श्री निहालचन्दजी आपका जन्म वि०सं० १९४८ माघ शुक्ला पंचमी (बसन्त पंचमी) को स्यालकोट (पंजाब) में हुआ। आपके पिता का नाम श्री निवाहू शाह और माता का नाम श्रीमती हीरादेवी था। वि०सं० १९७२ फाल्गुन सुदि त्रयोदशी के दिन मुनि श्री गैंडेयरायजी के श्री चरणों में बंगाशहर में आप दीक्षित हुये। दीक्षोपरान्त धर्मशास्त्रों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। अध्ययनोपरान्त आपने तपोराधना प्रारम्भ की। २०-२०, २१-२१ दिन के तप तो आपने अपने संयमपर्याय में अनेकों बार किये। ३०,३२,३५,३७,४५ और ६१ दिन तक के उपवास भी आपने किये थे। इन समस्त उपवासों के दिनों में आप केवल गर्म जल का ही सेवन करते थे। फल, दूध, जूस, नींबू-रस आदि कुछ भी नहीं लेते थे। आपने चौविहार तपस्या की लड़ी शुरु की जिसमें पहले चौविहार में एक अठाई की, पारणा करके नौ उपवास और फिर एक अठाई, दस उपवास एक अठाई, ग्यारह उपवास एक अठाई, बारह उपवास एक अठाई, तेरह उपवास एक अठाई, चौदह उपवास एक अठाई, पन्द्रह उपवास एक अठाई, सोलह उपवास एक अठाई । इसके पश्चात् २२ तक की लड़ी भरी और २२ ही तिविहार किये। इतनी कठोर तप-साधना के पश्चात् भी आप शान्ति के सागर, मृदुता, करुणा और क्षमा की प्रतिमूर्ति थे। आपकी पावन छत्रछाया में, आपके अन्तेवासी श्री फूलचन्दजी के सत्प्रयत्नों एवं प्रवर्तक बहुश्रुत श्री शान्तिस्वरूपजी के सत्परामर्श से 'जैन को-ऑपरेटिव हाऊसिंग सोसायिटी' की स्थापना हुई एवं 'श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा' संगठित की गई । वि०सं० २०१७ के प्रारम्भ से आपका शारीरिक स्वास्थ्य क्षीण होने लगा था। वि०सं० २९१७ तदनुसार २३ फरवरी १९६१ को प्रात: सवा नौ बजे आप जैसी दिव्यात्मा का महाप्रयाण हुआ। मुनि श्री. फूलचंदजी आपका जन्म वि०सं० १९६४ में मेरठ जिलान्तर्गत अमीनगर सराय में यदुवंश में हुआ। वि० सं० १९७७ में १३ वर्ष की आयु में आचार्य श्री सोहनलालजी की छत्रछाया में एवं मुनि श्री गैंडेयरायजी के शिष्यत्व में आप दीक्षित हुये। दीक्षोपरान्त आचार्य श्री सोहनलालजी और मनि श्री गैंडेयरायजी के सानिध्य में आपने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया । तप, जप, स्वाध्याय, ध्यान, सेवा आदि आपके जीवन के महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। ५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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