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________________ २२६ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास मुनि श्री गैंडेयरायजी (प्रथम शिष्य) __ आपका जन्म वि०सं० १९१८ में गुरदासपुर जिलान्तर्गत कलानौर ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम श्री भैय्यादासजी तथा माता का नाम श्रीमती रूपांदेवी था। जाति से आप कुम्हार प्रजापति थे। एक चील पक्षी का पर काटते हुये देखकर आपके मन में वैराग्य पैदा हो गया। फलत: वि०सं० १९३८ भाद्र शुक्ला सप्तमी को पं० रामबख्शजी की निश्रा में आचार्य श्री सोहनलालजी के शिष्यत्व में फिरोजपुर में आपने आहती दीक्षा ग्रहण की। तपस्या, प्रवचन, कठोर संयम-आचरण, स्पष्टोक्ति एवं सेवा आदि आपके आचारगत कार्य थे। स्व-परकल्याण, प्रवचन आदि द्वारा ज्ञान देना और सदाचरण करनाकरवाना आदि में आपकी विशेष रुचि थी। पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि प्रान्त आपका विहार क्षेत्र था। वि०सं० १९८८ ज्येष्ठ वदि सप्तमी को कुल आयु ७० वर्ष तथा संयमपर्याय ५० वर्ष पूर्ण कर आपने स्वर्गलोक की ओर प्रयाण किया। श्री गणि उदयचन्दजी, पंडित श्री नत्थूरामजी, श्री कस्तूरचन्दजी और श्री निहालचंदजी आदि आपके प्रमुख शिष्य थे। मुनि श्री गणि उदयचंदजी. आपका जन्म वि०सं० १९२२ में रोहतक के राता ग्राम के निवासी पं० श्री शिवरामजी शर्मा के यहाँ हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती सम्पतिदेवी था। आपके जन्म का नाम श्री नौबतराम था। दिल्ली में आप आचार्य श्री सोहनलालजी तथा श्री गैंडेयरायजी के सान्निध्य में आये और वि०सं० १९४१ भाद्र शुक्ला द्वादशी को कान्धला (उ०प्र०) में आपने मुनि श्री गैंडेयरायजी के शिष्यत्व में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षोपरान्त आप गुरुदेव के जीवन का अनुकरण करते हुए तथा तपस्या, सेवा और अध्ययन के मार्ग पर चलते हये तर्कमनीषी, वक्ता और समाजसेवी सन्त बन 'गणी' जैसे सम्मानित पद पर प्रतिष्ठित हुये। वि० सं० २००४ में दिल्ली में आपका स्वर्गवास हो गया। पं० मुनि श्री नत्थूरामजी आपका जन्म अमृतसर निवासी लाला मोहनलालजी ओसवाल के घर वि०सं० १९३८ हुआ। १५ वर्ष की उम्र में आपके मन में संसार के प्रति उदासीनता का भाव जाग्रत हुआ। फलत: वि०सं० १९५३ फाल्गुन शुक्ला द्वादशी को स्यालकोट में गुरुवर्य श्री गैंडेयरायजी के शिष्यत्व में आपने आर्हती दीक्षा ग्रहण की। दीक्षोपरान्त प्रतिवर्ष २८ पर्व तिथि एवं अन्यकाल में उपवास, बेला, तेला आदि तप किया करते थे। अधिक से अधिक आपने २७ उपवास की तपस्या की थी। वि० सं० १९८५ के भाद्र मास में अमृतसर में ही आपका स्वर्गवास हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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