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________________ २०४ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास प्रतिभा और आपकी ओजस्वी वाणी जनमानस को प्रभावित किये बिना नहीं रहती । यह आपका परम सौभाग्य है कि आपके गुरु व शिष्य दोनों की श्रमण संघ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये। आप देवलोक को प्राप्त हो चुके हैं। आप द्वारा लिखित व सम्पादित पुस्तकें निम्न हैं 'श्री विपाकसूत्र' (हिन्दी भाषा टीका सहित), 'श्री अन्तगड़सूत्र' (सम्पादित), 'श्री अनुयोगद्वारसूत्र' (हिन्दी भाषा टीका सहित, भाग-१) 'प्रश्नों के उत्तर' (दो खण्डों में), 'सामायिकसूत्र' (हिन्दी, उर्दू, भावार्थ भाषा टीका सहित), 'स्थानकवासी और तेरहपन्थ', 'दीपक के अमर सन्देश', 'सम्वत्सरी पर्व क्यों और कैसे?', 'जीवन झांकी' (गणि श्री उदयचन्द्रजी), 'आचार्य सम्राट' (आचार्य सम्राट पूज्य श्री आत्मारामजी की जीवनी), 'सरलता के महास्रोत' (तपस्वी श्री फकीरचन्दजी की जीवनी), 'भगवान् महावीर और विश्वशान्ति' (हिन्दी, अंग्रेजी, पंजाबी, और उर्दू में), 'ज्ञान-सरोवर', 'भजन संग्रह', 'ज्ञान का अमृत', 'सच्चा साधुत्व', 'परमश्रद्धेय श्री अमरमुनिजी पंजाबी' (जीवनी), ‘ज्ञान भरे दोहे', 'ज्ञान संगीत', 'महासती श्री चन्दनबाला', 'साधना के अमर प्रतीक' आदि। आचार्य डॉ० शिवमुनिजी __आपका जन्म पंजाब प्रान्त के फरीदकोट जिलान्तर्गत मलौट मण्डी में १८ । सितम्बर १९४२ को हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती विद्यादेवी और पिता का नाम श्री चिरंजीलालजी जैन था। बाल्यकाल से ही आप स्वभाव से अन्तर्मुखी रहे हैं। दर्शनशास्त्र विषय से एम०ए० करने के पश्चात् आपने इटली, कनाडा, कुबैत, अमेरिका आदि देशों की यात्राएँ की। इन विभिन्न देशों की चकाचौंध एवं रंगिनियाँ आपको रास नहीं आयी। अंतत: आपने जिनमार्ग को जीवन का लक्ष्य बनाया। ३० वर्ष की आय में १७ मई १९७२ को मलौट मण्डी (पंजाब) में अपनी तीन बहनों के साथ आपने आर्हती दीक्षा ग्रहण की। आपके दीक्षा गुरु पंजाबकेसरी श्री ज्ञानमुनिजी थे। दीक्षोपरान्त आपने 'भारतीय धर्मों में मोक्ष विचार' विषय पर शोधकार्य किया और पी-एच०डी० की उपाधि से विभूषित हुये । प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं पर आपका समान अधिकार है। ई० सन् १९८७ में पूना में आचार्य श्री आनन्दऋषिजी के सान्निध्य में आयोजित वर्धमान स्थानकवासी श्रमण संघ के सम्मेलन में आप 'युवाचार्य' पद पर प्रतिष्ठित हुये। आचार्य श्री आनन्दऋषिजी के स्वर्गारोहण के पश्चात् उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी संघ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। आचार्य देवेन्द्रमुनिजी के स्वर्गवास के पश्चात् दिनांक ९.७.१९९९ को अहमदनगर में श्रीसंघ ने आपको आचार्य पद प्रदान किया। ७ मई २००१ को दिल्ली में लगभग ३५० संत-सतियों की विशाल उपस्थिति में आपका 'आचार्य पद चादर महोत्सव' ऐतिहासिक रूप में सम्पन्न हुआ। एक सुयोग्य और विद्वान् मुनिराज को संघशास्ता के रूप में पाकर श्रीसंघ प्रफुल्लित है। वर्तमान में आप वृहत् साधु समुदायवाले श्रमण संघ के अनुशास्ता हैं। ध्यान-साधना आपके जीवन की एक विशेषता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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