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________________ २०३ आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा के स्वर्गवास के पश्चात् वि० सं० २००३ में आप स्थानकवासी पंजाब सम्प्रदाय के आचार्य बनाये गये । पुनः जब वि०सं० २००९ में सादड़ी में स्थानकवासी परम्परा का बृहद् साधु सम्मेलन हुआ तब उसमें सर्वानुमति से आपको आचार्य मनोनित किया गया। इस प्रकार आप स्थानकवासी समाज के एक बृहद् संघ के आचार्य बने । श्रमणसंघ के आप प्रथम आचार्य हुए। आपका जीवन सरल और निश्छल था तथा ज्ञान साधना विशिष्ट थी। आप सदैव ही स्वाध्याय में लीन रहते थे। जैन साहित्य और आगम का आपने तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था। आगमों में आपने 'आवश्यकसूत्र', 'अनुयोगद्वार', 'दशवैकालिक', 'उत्तराध्ययन', ‘आचारांग’, ‘उपासकदशांग, 'अन्तगड़दशा', 'स्थानांग', 'अनुत्तरौपपातिक', 'प्रश्नव्याकरण', 'दशाश्रुतस्कन्ध', 'बृहत्कल्प' और 'निरयावलिका' पर विस्तृत व्याख्यायें लिखीं । आपने 'तत्त्वार्थसूत्र और जैनागम समन्वय' नाम की एक विशिष्ट कृति निर्मित की है जिसमें आपने 'तत्त्वार्थसूत्र' के सूत्रों का आगमिक आधार स्पष्ट किया है। इनके अतिरिक्त 'जैनागम में परमात्मवाद', जीवकर्म संवाद', 'जैनागमों में अष्टांगयोग', 'विभक्तिसंवाद', 'वीरस्तुति' आदि आपकी मौलिक कृतियाँ हैं । 6 आपकी कष्ट सहिष्णुता और समभाव साधना भी अद्वितीय थी। कैंसर जैसी भयंकर व्याधि को सरलता से सहन करते हुए समभावपूर्वक वि० सं० २०१८ तदनुसार ई० सन् १९६१ माघ वदि नवमी को आपका स्वर्गवास हो गया। आपके प्रमुख शिष्यों के नाम इस प्रकार हैं- श्री खजानचन्दजी, श्री ज्ञानचन्दजी, पं० श्री हेमचन्द्रजी, श्री ज्ञानमुनिजी, श्री प्रकाशचन्दजी, श्री रत्नमुनिजी, श्री क्रान्तिमुनिजी, उपाध्याय श्री मनोहरमुनिजी, एवं श्री मथुरामुनिजी । श्री ज्ञानमुनिजी आचार्य आत्मारामजी के शिष्यों में आप विशिष्ट सन्त रहे हैं। आपका जन्म वि०सं० १९७९ वैशाख शुक्ला तृतीया को पंजाब के बरनाला जिलान्तर्गत साकोही ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम लाला गोरखारामजी अग्रवाल व माता का नाम श्रीमती मन्सादेवी था। वि०सं० १९९३ वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को १४ वर्ष की अवस्था में आचार्य श्री आत्मारामजी के श्री चरणों में आपने आर्हती दीक्षा ली। दीक्षोपरान्त आपने प्राकृत व संस्कृत भाषा का गहन अध्ययन किया। आपने आचार्य हेमचन्द्र के 'प्राकृत व्याकरण' पर संस्कृत व हिन्दी में विस्तृत व्याख्या लिखी है। 'विपाकसूत्र' आदि कई आगम ग्रन्थों का आपने कुशल अनुवाद एवं सम्पादन किया है। 'भगवान् महावीर के पाँच सिद्धान्त', 'श्रमण संस्कृति के प्रतीक ऋषिवर आनन्द' आदि २० से भी अधिक पुस्तकों का आपने प्रणयन किया है। समाज के प्रति आपके द्वारा किये गये अवदान को देखते हुए ही पंजाब के जनमानस ने आपको 'पंजाब केसरी', 'जैन भूषण' और 'व्याख्यान दिवाकर' आदि उपाधियों से अलंकृत किया है । उदारहृदय, स्वभाव से स्नेहपूर्ण व्यवहार, विलक्षण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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