________________
प्रथम अध्याय जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा
(आदिकाल से लेकर आज तक) जैनधर्म एक जीवित धर्म है और कोई भी जीवित धर्म देश और कालगत परिवर्तनों से अछता नहीं रहता है। जब भी हम किसी धर्म के इतिहास की बात करते हैं तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि हम किसी स्थिर धर्म की बात नहीं करते, क्योंकि किसी स्थिर धर्म का इतिहास ही नहीं होता है। इतिहास तो उसी का होता है जो गतिशील है, परिवर्तनशील है। जो लोग यह मानते हैं कि जैनधर्म अपने आदिकाल से आज तक यथास्थिति में रहा है, वे बहत ही भ्रान्ति में हैं। जैनधर्म के इतिहास की इस चर्चा के प्रसंग में मैं उन परम्पराओं की और उन परिस्थितियों की चर्चा भी करना चाहूँगा, जिसमें अपने सुदूर अतीत से लेकर वर्तमान तक जैनधर्म ने अपनी करवटें बदली हैं और जिनमें उसका उद्भव और विकास हुआ है।
यद्यपि जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व में प्रति एक हजार व्यक्तियों में मात्र छह व्यक्ति जैन हैं, फिर भी विश्व के धर्मों के इतिहास में जैनधर्म का अपना एक विशिष्ट स्थान है क्योंकि वैचारिक उदारता, दार्शनिक गम्भीरता, लोकमंगल की उत्कृष्ट भावना, विपुल साहित्य और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व के धर्मों के इतिहास में इसका अवदान महत्त्वपूर्ण है । यहाँ हम इस धर्म परम्परा को इतिहास के आइने में देखने का प्रयास करेंगे। प्राचीन श्रमण या आर्हत्, परम्परा
विश्व के धर्मों की मुख्यत: सेमेटिक धर्म और आर्य धर्म, ऐसी दो शाखाएँ हैं। सेमेटिक धर्मों में यहदी, ईसाई और इस्लाम आते हैं जबकि आर्य धर्मों में पारसी, हिन्दू (वैदिक), बौद्ध और जैनधर्म की गणना की जाती है। इनके अतिरिक्त सुदूर पूर्व के देश जापान और चीन में विकसित कुछ धर्म कन्फूशियस एवं शिन्तो के नाम से जाने जाते हैं।
आर्य धर्मों के इस वर्ग में जहाँ हिन्दूधर्म के वैदिक स्वरूप को प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है वहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्म को संन्यासमार्गी या निवृत्तिपरक कहा जाता है। यह निवृत्तिपरक संन्यासमार्गी परम्परा प्राचीन काल में श्रमण परम्परा, आर्हत् परम्परा या व्रात्य परम्परा के नाम से जानी जाती थी। जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म इसी आहेत्, व्रात्य या श्रमण परम्परा के धर्म हैं । श्रमण परम्परा की विशेषता यह है कि वह सांसारिक एवं ऐहिक जीवन की द:खमयता को उजागर कर संन्यास एवं वैराग्य के माध्यम से निर्वाण या मोक्ष की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करती है । इस निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा ने तप एवं योग की अपनी आध्यात्मिक साधना एवं शीलों या
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org