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________________ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास व्रतों के रूप में नैतिक मूल्यों की संस्थापना की दृष्टि से भारतीय धर्मों के इतिहास में अपना विशिष्ट अवदान प्रदान किया है। इस प्राचीन श्रमण परम्परा में न केवल जैन और बौद्ध धारायें ही सम्मिलित हैं, अपितु औपनिषदिक और सांख्य-योग की धारायें भी सम्मिलित हैं जो आज बृहद् हिन्दुधर्म का ही एक अंग बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ धाराएँ भी थीं जो आज विलुप्त हो चुकी हैं। आज श्रमण परम्परा के जीवन्त धर्मों में बौद्धधर्म और जैनधर्म अपना अस्तित्व बनाये हुए है। यद्यपि बौद्धधर्म भारत में जन्मा और विकसित हुआ और यहीं से उसने सुदूरपूर्व में अपने पैर जमाये, फिर भी भारत में वह एक हजार वर्ष तक विलुप्त ही रहा, किन्तु यह शुभ संकेत है कि श्रमणधारा का यह धर्म भारत में पुन: स्थापित हो रहा है। जहाँ तक आर्हत् या श्रमणधारा के जैनधर्म का प्रश्न है, यह भारतभूमि में अतिप्राचीन काल से आज तक अपना अस्तित्व बनाये हुए है। अग्रिम पृष्ठों में हम इसी के इतिहास की चर्चा करेंगे। भारतीय इतिहास के आदिकाल से ही हमें श्रमणधारा के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध होते हैं। फिर चाहे वह मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त पुरातात्त्विक सामग्री हो या ऋग्वेद जैसा प्राचीनतम साहित्यिक ग्रन्थ हो। एक ओर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त अनेक सीलों पर हमें ध्यानस्थ योगियों के अंकन प्राप्त होते हैं तो दूसरी ओर ऋग्वेद में अर्हत्, व्रात्य, वातरसना मुनि आदि के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। ये सब प्राचीन काल में श्रमण, व्रात्य या आर्हत् परम्परा के अस्तित्व के प्रमाण हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आज प्रचलित जैनधर्म 'शब्द' का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। यह शब्द ईसा की छठी-सातवीं शती से प्रचलन में है। इसके पूर्व जैनधर्म के लिये 'निर्ग्रन्थ धर्म' या 'आर्हत् धर्म' ऐसे दो शब्द प्रचलित रहे हैं। इनमें भी 'निर्ग्रन्थ' शब्द मुख्यत: भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर की परम्परा का वाचक रहा है। किन्तु जहाँ तक 'आर्हत्' शब्द का सम्बन्ध है यह मूल में एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता था। ‘आर्हत्' शब्द अर्हत् या अरहन्त के उपासकों का वाचक था और सभी श्रमण परम्पराएं चाहे वे जैन हों, बौद्ध हों या आजीवक हों, अरहन्त की उपासक रही हैं। अत वे सभी परम्पराएं आर्हत् वर्ग में ही अन्तर्भूत थीं। ऋग्वैदिक काल में आहेत् (श्रमण) और बार्हत् (वैदिक) दोनों का अस्तित्व था और आर्हत् या व्रात्य श्रमणधारा के परिचायक थे। किन्तु कालान्तर में जब कुछ श्रमण परम्पराएं बृहद् हिन्दूधर्म का अंग बन गईं और आजीवक आदि कुछ श्रमण परम्पराएं लुप्त हो गई तथा बौद्ध परम्परा विदेशों में अपना अस्तित्व रखते हुये भी इस भारतभूमि से नामशेष हो गई तो 'आर्हत्' शब्द भी सिमट कर मात्र जैन परम्परा का वाचक हो गया। इस प्रकार आहेत्, व्रात्य, श्रमण आदि शब्द अति प्राचीन काल से जैनधर्म के भी वाचक रहें हैं। यही कारण है कि जैन धर्म को आर्हत् धर्म, श्रमण धर्म या निवृत्तिमार्गी धर्म भी कहा जाता है। किन्तु यहाँ हमें यह ध्यान रखना है कि आर्हत्, व्रात्य, श्रमण आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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