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________________ १६९ आचार्य जीवराजजी और उनकी परम्परा मुनि श्री दयालचन्दजी - आपका जन्म मारवाड़ के मजल गाँव मूथा परिवार में हआ। वि०सं० १९३१ में गोगन्दा में आपकी दीक्षा हई। आपका स्वर्गवास वि०सं० २००० में हुआ। आपके शिष्य मुनि श्री हेमराजजी थे जिनका जन्म पाली में हुआ था। उन्होंने वि०सं० १९६० में दीक्षा ग्रहण की थी। उनका स्वर्गवास वि०सं० १९९७ में दुन्दाड़ा में समाधिपवूक हुआ। मुनि श्री नेमीचन्दजी - आपके तीन शिष्य हुए- मुनि श्री वृद्धिचन्दजी, मुनि श्री हंसराजजी और मुनि श्री दौलतरामजी। मुनि श्री वृद्धिचन्दजी मेवाड़ में काकुँडा गाँव के निवासी थे। मुनि श्री हंसराजजी मेवाड़ देवास ग्राम के बाफना परिवार के थे। तीसरे शिष्य दौलतरामजी देलवाड़ा निवासी थे। मुनि श्री. पन्नालाल. जी. - मेवाड़ के गोगुन्दा गाँव के लोढा परिवार में आपका जन्म हुआ। वि० सं० १९४२ में राणावास में आपकी दीक्षा हुई। आपके दो शिष्य हुए- मुनि श्री प्रेमचन्दजी और मुनि श्री उत्तमचन्दजी, मुनि श्री प्रेमचन्दजी का स्वर्गवास वि०सं० १९८३ में मोकलसर गाँव में हुआ। मुनि श्री उत्तमचन्दजी ने १९५६ में दीक्षा ग्रहण की और वि०सं० २००० में मोकलसर में आपका स्वर्गवास हुआ। श्री उत्तमचन्द्रजी के दो शिष्य थे- जोरावरमलजी और बुधमलजी। श्री ताराचन्दजी - आपका परिचय आगे दिया जायेगा। आचार्य श्री ज्येष्ठमलजी पूज्य आचार्य श्री पूनमचन्दजी के देवलोक होने के पश्चात् आचार्य श्री अमरसिंहजी की परम्परा में सातवें पट्टधर आचार्य श्री ज्येष्ठमलजी हुए। यद्यपि आपने आचार्य पद ग्रहण नहीं किया था, फिर भी सामान्य मुनि की भाँति संघ की देखभाल करते रहे। आपका जन्म बाड़मेर जिले के समदड़ी ग्राम में वि०सं० १९१४ पौष कृष्णा तृतीया (तीज) को हुआ था। आपके पिता का नाम श्री हस्तीमलजी और माता का नाम श्रीमती लक्ष्मीबाई था। ज्योतिर्धर आचार्य श्री पूनमचन्दजी की निश्रा में सतरह वर्ष की उम्र में वि०सं० १९३१ में आपने दीक्षा ग्रहण की। ध्यान और स्वाध्याय में आपका अधिक समय व्यतीत होता था। आप गुप्त साधक थे। रात्रि के प्रथम प्रहर में प्रतिक्रमण आदि कार्यों के बाद जब उपाश्रय खाली हो जाता है तब आप अपनी साधना में लग जाते थे और जब प्रात:काल लोग आते थे तब आप सो जाते थे । लोग समझते की आप आलसी हैं। आपके जीवन से अनेक चामत्कारिक घटनायें जुड़ी हैं जिन्हें विस्तारभय से यहाँ नहीं दिया जा रहा है। आपके प्रमुख शिष्यों में मुनि श्री नेमचन्दजी और मुनि हिन्दूमलजी थे। मुनि श्री नेमचन्दजी लुंकड परिवार के तथा समदड़ी के निवासी थे तथा मुनि श्री हिन्दूमलजी गढ़सिवाना के निवासी थे। मुनि श्री हिन्दूमलजी ने दीक्षित होते ही दूध, घी, तेल, मिष्ठान - इन पाँच विगय का त्याग कर दिया था। एकान्तर उपवास के साथ-साथ आप आठ-आठ, दस-दस दिन के उपवास भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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