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________________ १६८ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास से ओसवाल और रायगाँधी गोत्रीय थे। आचार्य प्रवर ज्ञानमलजी के उपदेशों से आप में वैराग्य की भावना जाग्रत हुई। आपकी बड़ी बहन पहले से ही संयममार्ग पर चलने के लिए तैयार थीं। आप दोनों भाई-बहन ने पिताजी से दीक्षा की अनुमति माँगी। पिताजी ने न चाहते हुए भी सन्तान का आग्रह देखकर दीक्षा की अनुमति दे दी। किन्तु आपके चचेरे भाई जो जालोर में कोतवाल थे। उन्होंने आप दोनों को दीक्षा ग्रहण करने से रोका और आपको एक कमरे बंद कर दिया। आप पीछे की खिड़की से निकलकर पैदल चलते हुए जोधपुर आचार्य श्री के पास पहुँचे। पिताजी द्वारा दी गयी दीक्षा की अनुमति आचार्य श्री को दिखाकर दीक्षा प्रदान करने का अनुग्रह किया। दीक्षा की पूरी तैयारी हो चुकी थी। श्री ज्ञानमलजी घोड़े पर सवार होकर नगर के मध्य से गुजर रहे थे कि आपके फूफाजी जो जोधपुर में ही रहते थे, को यह मालूम हुआ कि ज्ञानमलजी दीक्षा ले रहे हैं। वे आरक्षक दल के अधिकारियों को लेकर आये और ज्ञानमलजी को वहाँ से ले गये। बहुत समझाया और कमरे में बन्द कर दिया। ज्ञानमलजी पुन: वहाँ से भागकर जालोर आ गये। यहाँ भी वहीं बात थी। आपके चचेरे भाई ने आपकी एक न सुनी। बहुत आग्रह करने पर उन्होंने बहन तुलसा को तो दीक्षा की अनुमति दे दी किन्तु ज्ञानमलजी को नहीं दी। अन्तत: आपकी असीम भावना और आग्रह को देखते हुए आपके भाई ने इस शर्त पर अनुमति दी की यह दीक्षा यहाँ जालोर में नहीं होगी, अन्यत्र कहीं हो सकती है। इस प्रकार जालोर से २०-२५ मील दूर भँवरानी गाँव में वि० सं० १९०६ माघ शुक्ला नवमी दिन मंगलवार को श्री आचार्य के सानिध्य में आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई। दीक्षा के समय आपकी उम्र १४ वर्ष थी। आप प्रवचन कला में निपुण थे। आगम के गहन रहस्य को भी आप सुगम रीति से समझाते थे। आपके सात शिष्य थे- मुनि श्री मानमलजी, मुनि श्री नवलमलजी, मुनि श्री ज्येष्ठमलजी, मुनि श्री दयालचन्दजी, मुनि श्री नेमीचन्दजी, मुनि श्री पन्नालालजी, मुनि श्री ताराचन्दजी। वि०सं० १९५० माघ कृष्णा सप्तमी जोधपुर में चतुर्विध संघ ने आपको आचार्य पद पर मनोनित किया। यद्यपि आचार्य श्री ज्ञानमलजी का स्वर्गवास वि०सं० १९३० में ही हो गया था। इस बीच २० वर्षों तक आचार्य पद खाली रहा। आप मात्र दो वर्ष ही आचार्य पद पर रहे। वि०सं० १९५२ में आपका चातुर्मास आपकी जन्मभूमि जालौर में हुआ । वहीं भाद्र पूर्णिमा के दिन आपका समाधिमरण हुआ। आपके सात शिष्यों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है मुनि श्री मानमलजी - आपका जन्म जालौर में हुआ आप लूनिया परिवार के थे। इससे अधिक जानकारी नहीं मिलती है। मुनि श्री नवमलजी - आपके विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। हाँ! इतना ज्ञात होता है कि पाली में आपका स्वर्गवास हुआ था। मुनि श्री ज्येष्ठमलजी - आचार्य श्री पूनमचन्द जी के पाट पर आप विराजित हुए। आपके विषय में आगे चर्चा की जायेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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