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________________ १७० स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास करते थे। आपका (हिन्दूमलजी का) स्वर्गवास वि० सं० १९५३ में हुआ। आचार्य श्री ज्येष्ठमलजी का स्वर्गवास वि०सं० १९७४ में वैशाख शुक्ला चतुर्थी के दिन हुआ। मुनि श्री ताराचन्दजी आचार्य श्री ज्येष्ठमलजी के बाद आठवें पट्टधर के रूप में मुनि श्री ताराचन्दजी आचार्य मनोनित हुए। आपका जन्म मेवाड़ के पहाड़ों पर बसे हुये बंबोरा नामक गाँव में वि० सं० १९४० में हुआ था आपके पिता का नाम श्री शिवलालजी तथा माता का नाम श्रीमती ज्ञानकुँवरजी था। आपके बचपन का नाम हजारीमल था। आप जब सात वर्ष के थे तभी आपके पिता का देहावसान हो गया। आपका भरण-पोषण माँ की देखरेख में होने लगा। पिताजी के देहावसान के पश्चात् आपकी माताजी आपको लेकर बंबोरा से उदयपुर आ गयी। वहाँ आप शिक्षा ग्रहण करने पोशाल में जाने लगे। उदयपुर में आप अपनी माताजी के साथ वहाँ विराजित चारित्र आत्माओं (साध्वीजी) के दर्शनार्थ जाते थे। वि०सं० १९४९ में आचार्य श्री पूनमचन्दजी का उदयपुर पधारना हुआ। साथ में साध्वीवृंद भी वहाँ पधारी। साध्वी श्री गुलाबकुँवरजी, छगनकुँवरजी आदि उनमें प्रमुख थीं। आचार्य श्री का व्याख्यान सुनने श्री हजारीमल रोज अपनी माता के साथ जाते थे। प्रवचन सुनने से आपके मन में वैराग्य पैदा हुआ। अपने मन की बात आपने अपनी माता से कहा। माता यह जानकर प्रसन्न हुई कि उनका पुत्र जिनशासन की सेवा करना चाहता है। अत: उन्होंने कहा यदि तुम दीक्षा लोगे तो मैं भी संयम के मार्ग पर चलूँगी। दोनों माता-पुत्र की दीक्षा लेने की खबर श्री हंसराजजी को हई। हंसराजजी रिश्ते में हजारीमलजी के मामा लगते थे। वे आये और आप दोनों माता-पुत्र को अपने घर ले जाने का आग्रह करने लगे। आपकी माता तो नहीं गयीं परन्तु आपके मामा आपको वहाँ से ले गये और सांसारिक बातों में बालक हजारीमल को तरह-तरह से लुभाने का प्रयत्न करने लगे । किन्तु हजारीमल अपने इरादे में अडिग रहे। अंतत: हंसराजजी ने अदालत में अपील की कि बालक अभी नाबालिग है अपनी माँ के कहने पर दीक्षा ग्रहण कर रहा है। अत: इसे दीक्षा लेने से रोका जाये। अदालत में जब न्यायाधीश ने पूछा कि हजारीमल यह बताओ कि क्या तुम अपनी माता के कहने पर दीक्षा ग्रहण कर रहे हो? हजारीमल ने कहा- नहीं साहब! मैं अपनी इच्छा से दीक्षा लेना चाहता हूँ। मेरे दीक्षा लेने की बात सुनकर माँ भी तैयार हो गयी कि तू दीक्षा लेगा तो मैं भी दीक्षा लूंगी। अत: न्यायाधीश ने हजारीमलजी के पक्ष में फैसला किया। इस प्रकार वि०सं० १९५० ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी दिन रविवार को समदड़ी में आचार्य श्री पूनमचन्दजी के सानिध्य में आपकी दीक्षा हुई। आपकी माता की दीक्षा चैत्र शुक्ला द्वितीया को हुई। बालक हजारीमल मुनि ताराचन्द बन गये। आचार्य प्रवर की देख-रेख में आपकी शिक्षा प्रारम्भ हुई। वि०सं० १९५२ में आचार्य प्रवर पूनमचन्दजी मुनि श्री ताराचन्दजी को मुनि श्री जयेष्ठमलजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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