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आचार्य जीवराजजी और उनकी परम्परा
१६३ चातुर्मास करते हुए अजमेर पधारे। यहीं पर ९३ वर्ष की आयु में वि० सं० १८१२ आश्विन शुक्ला पूर्णिमा के दिन आपका स्वर्गवास हो गया। आचार्य श्री तुलसीदासजी
- पूज्य आचार्य श्री अमरसिंहजी के पट्ट पर मुनि श्री तुलसीदासजी विराजित हुए। अमरसिंहजी की परम्परा के आप द्वितीय पट्टधर थे। आपका जन्म मेवाड़ के जूनिया ग्राम के निवासी श्री फकीरचन्दजी अग्रवाल के यहाँ वि०सं० १७४३ आश्विन शुक्ला अष्टमी को हुआ था । बचपन से आप में संसार के प्रति विरागता थी। १५ वर्ष की अवस्था अर्थात् वि० सं० १७५८ में आपका विवाह हुआ। विवाह होने के पश्चात् भी आपका सांसारिक जीवन से कोई लगाव नहीं था। सौभाग्यवश आचार्य श्री अमरसिंहजी जूनिया ग्राम पधारे। आचार्य श्री से आपका सम्पर्क हुआ, मन में वैराग्य की भावना दृढ़ हो गयी। माता-पिता की ममता और पत्नी का मोह भी आपको संयममार्ग पर चलने से नहीं रोक पाया। वि० सं० १७६३ पौष कृष्णा एकादशी को बीस वर्ष की आयु में आपने आचार्य श्री अमरसिंहजी से दीक्षा ग्रहण की। आचार्य श्री अमरसिंहजी जैसे प्रकाण्ड विद्वान् से आपने आगम और दर्शन की शिक्षा प्राप्त की। वि० सं० १८१२ में पूज्य आचार्य अमरसिंहजी के स्वर्गारोहण के पश्चात् आप उनके पाट पर विराजित हुए। आचार्य श्री अमरसिंहजी के शिष्यों में आप अग्रगण्य थे। राजस्थान के विविध क्षेत्रों में जिनशासन की प्रभावना करते हुए वि० सं० १८३० भाद्रपद शुक्ला सप्तमी को ४५ दिन के संथारे के साथ आप समाधिमरण को प्राप्त हुए। आचार्य श्री सुजानमलजी
आप आचार्य श्री तुलसीदासजी के शिष्य थे। आपका जन्म मारवाड़ में वि०सं० १८०४ भाद्रपद कृष्णा चतुर्थी को श्री विजयचन्द्रजी भण्डारी के यहाँ हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती याजूबाई था। आपके माता-पिता का प्रारम्भ से ही धर्म से विशेष लगाव था। वे दोनों इस भौतिकवादी दुनिया में रहकर भी निर्लिप्त भाव से अपना जीवन बिताते थे। आपके शभ कर्मोदय से आचार्य श्री तुलसीदासजी अपने शिष्यों के साथ विहार करते हुए मारवाड़ पधारे। उनके दर्शन करने के पश्चात् उनके त्याग-वैराग्य भाव से भरे प्रवचनों को सुनकर आप, आपकी माता और भगिनी (बहन) तीनों ने वि०सं० १८१८ चैत्र शुक्ला एकादशी को संयममार्ग अंगीकार कर लिया। सुजानमल अब मुनि श्री सुजानमलजी हो गये। आचार्य श्री के सानिध्य में आपने आगम ग्रन्थों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। मेवाड़, मारवाड़, मध्यप्रदेश आदि स्थलों में विहार करते हुए आपने अनेक भव्य जीवों को सुमार्ग की ओर प्रेरित किया। वि० सं० १८३० में आचार्य श्री तुलसीदासजी के स्वर्गवास के पश्चात् आप संघ के आचार्य बनाये गये। किन्तु विधि का विधान किसी को पता नहीं था? कौन जानता था कि आचार्य श्री ४५ वर्ष के अल्पवय में ही इस संसार से पलायन कर जायेंगे। वि० सं० १८४९ ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी को आप स्वर्गस्थ हो गये।
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