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________________ १६२ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास रुकने की बात कहकर आपके अनुरोध को टाल दिया। कुछ समय पश्चात् आपने विवाह कर गृहस्थ धर्म को स्वीकार कर लिया, किन्तु एक योगी का मन भोगी कैसे हो सकता है? वि०सं० १७४० में आपने अपनी पत्नी को संसार की असारता के विषय में समझा-बुझाकर ब्रह्मचर्य व्रत धारण करवा दिया और स्वयं आचार्य श्री लालचन्दजी के पास पहुँच गये। माता-पिता के बहुत समझाने पर भी आप वापस आने को तैयार न हुए। अन्तत: माता-पिता ने दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति दे दी। वि०सं० १७४१ चैत्र कृष्णा दशमी को आपने आचार्य श्री लालचन्दजी के सान्निध्य में दीक्षा ग्रहण की। आप यशस्वी साधक, प्रखर प्रवचनकार तथा अपने विषय के मर्मज्ञ थे। जब भी बोलते थे साधिकार बोलते थे। आपका ज्यादा समय आचार्य श्री के सान्निध्य में ही बीतता था। वि०सं० १७६१ में अमृतसर में आप यूवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। वि०सं० १७६२ चैत्र शुक्ला पंचमी को दिल्ली में महोत्सवपूर्वक आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। आचार्य बनने के बाद आपका पहला चातुर्मास दिल्ली में ही हुआ। तदुपरान्त आपने पंजाब में कुछ चातुर्मास किये। पंजाब के चातुर्मासों के पश्चात् आपने पुन: दिल्ली में चातुर्मास किया। पूज्य श्री अमरसिंहजी के समय दिल्ली में मुगल शासक बहादुरशाह का शासन था (ई०सन् १७०६ से १७१२) । बहादुरशाह ने भी वि०सं०१७६७ में आपके दर्शन किये और आपकी विद्वता की सराहना की तथा आपसे अहिंसा धर्म को समझा। वि० सं० १७६८ में आपका चातुर्मास जोधपुर था। ऐसा उल्लेख मिलता है कि जोधपुर के नरेश महाराजा अजितसिंह ने कई बार आपके दर्शन किये थे और प्रवचन सुनने के लिए उपस्थित हुए थे । आचार्य श्री के प्रवचन प्रभाव से उन्होंने शिकार न करने की प्रतिज्ञा भी ली थी । मेड़ता, नागौर, बगड़ी, अजमेर, किशनगढ़, जूनिया, केकड़ी, शहापुरा, भीलवाड़ा, कोटा, उदयपुर, रतलाम, इन्दौर, पीपाड़, बिलाड़ा आदि आपके चातुर्मास स्थल रहे हैं। ऐसा उद्धरण मिलता है कि समाज में बढ़ते आपके प्रभाव को देखते हुए पंचवर ग्राम में कानजीऋषिजी के सम्प्रदाय के आचार्य श्री ताराचन्दजी, श्री जोगराजजी, श्री भीवाजी, श्री तिलोकचन्दजी एवं साध्वी श्री राधाजी, आचार्य श्री हरिदासजी के शिष्य श्री मलूकचन्दजी, साध्वी श्री फूलांजी, आचार्य श्री परसरामजी के शिष्य मुनि श्री खेतसिंहजी, श्री खीबसिंहजी, साध्वी श्री केशरजी आदि सन्त-सतियाँ आपके पास एकत्रित होकर एक दूसरे के विचारों को जाना तथा श्रमण संघ की उन्नति हेतु मार्ग प्रशस्त किये। यदि कालक्रम की दृष्टि से विचार किया जाय तो स्थानकवासी परम्परा का यह प्रथम संघीय सम्मेलन था। इस सम्मेलन का एक लिखित पन्ना उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी के पास था। आचार्य श्री अमरसिंहजी द्वारा लिखित ग्रन्थ जोधपुर, जालोर, अजमेर और खाण्डप के भण्डारों में उपलब्ध हैं - ऐसा आचार्य देवेन्द्रमुनिजी का मानना है। पंचवर से विहार कर आचार्य प्रवर जोधपुर, सोजत, बगड़ी, शाहपुरा आदि स्थानों पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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